Friday, December 17, 2010

Nikhil Elements Overview

निखिल तत्त्व अवलोकन Nikhil Elements Overview


ल तत्वार्थ - लं बीज पृथ्वी तत्त्व का कारक है एवं उसका स्थान है मूलाधार। इसलिए "ल" अक्षर प्रतिनिधित्व करता है इस संपूर्ण स्थूल चराचर जगत का।

खि तत्वार्थ - खं शब्द का अर्थ संस्कृत में है - आकाश (Ether) और इकार है आद्यशक्ति का द्योतक। जैसे, 'शव' में जब 'इकार' का योग होता है तब ही वह "शिव" मेंपरिवर्तित होता है। इसीलिए "खि" अक्षर प्रतिनिधित्व करता है ब्रम्हाण्ड में स्थित उन सुक्ष्म शक्तियों का जिनकी परिपाटी पर कई अगम्य अगोचर जगत विद्यमान हैं।

नि तत्वार्थ - "नि" उपसर्ग एक "पर (BEYOND)" की स्थिति दर्शाता है। स्वार्थ, 'नि' से युक्त होकर निःस्वार्थ हो जाता है, आकार - निराकार, कलंक - निष्कलंक,आधार - निराधार, विकार - निर्विकार, द्वन्द - निर्द्वंद........."नि" उस शक्ति का प्रतिनिधित्व करती है जो की स्थूल एवं सुक्ष्म दोनों से ही "पर" है।

नि-खि-ल प्रतिक है, इन सभी जगतों का...
स्थूल - ल (GROSS)...आधिभौतिक
सुक्ष्म - खि (SUBTLE)...आधिदैविक
परा - नि (BEYOND)...आध्यात्मिक

और जो सत्ता इन तीनों जगत का संचालक है, पालक-पोषक है, इश्वर है, वही सत्ता है "निखिलेश्वर", वही तत्त्व है - "निखिलेश्वरानंद"।


॥ निखिलं वंदे जगद्गुरुम्||

RECENT SHIVIRS

RECENT UPDATES OF ALL THE SHIVIRS WHICH ARE GOING TO BE PERFORMED UNDER THE REVERRED BHAGWAN NIKHILESHWAR

PARAM PUJYA BHAGWAN ARVIND GURUDEVJI KI SHIVIRS1. 26 december,2010
kuber yantra sadhna shivir, VALSAAD,GUJRAT
Address- Rajput samaj hall, near kasturba hospital, Valsaad city,gujrat
Contact- devender panchal-09998874612,08860556793, jayesh panchaal- 09427479275, shankar bhai prajapati-09978196517.


PARAM PUJYA BHAGWAN NAND KISHORE GURUDEVJI KI SHIVIRS
1) 18-19 December
Aadhya Shakti Sadhna Shivir
Bhimakali Mandir Parisar
Mandi(H.P)
9418065655,9418771841
PARAM PUJYA BHAGWAN KAILASH GURUDEVJI KI SHIVIRS!!!

2) 12 th Dec.-NAGPUR (MAHARASHTRA)
"Ashorya lakshmi sadhna shivir"digori,nagpur.
ADDRESS : PRAGATI SANSKRITIK BHAWAN, DIGORI, NAGPUR.
contact-9766797866, 9373218380

3) 14th december, "NAVAARN SHAKTI SATRU HANTA SADHANA SHIVIR" , dharmdaye cotton fund , amravati , 150km from nagpur station & 10km from badnera station , maharashtra.
contact-07223227194, 09826130684

4) 19th december, " TANTRA BAADHA MUKTI LAXMI SADHANA SHIVIR" , paras place ,malviya chowk , jabalpur, madhya pardesh.contact- vijay joshi-09300879776,09826130684

5) 21st december, "POORNTA PRAPTI BAHGYODAY SADHANA SHIVIR". COMMUNITY HALL , NEAR STADIUM , umaria, madhya pardesh.contact-kk chandra-9303127059,09826130684
6)22nd december, "MAHAMRITUNJAAY SHIVATA SADHANA SHIVIR" , BANKIM BIHAR , COMMUNITY HALL , JAMUNA-KOTMA, DIST. : ANUPPUR (M,.P.)contact-kk chandra-9303127059,09826130684


7) 24th december, "NIKHIL CHETANA KUBER SADHANA SHIVIR " , DURGA MANDIR HALL , GANDHI CHOWK , AMBIKAPUR (chattisgarh.).
contact-09926138808,09826130684

Friday, December 3, 2010

About GYANGUNJ

सिद्धाश्रम अध्यात्म जीवन का वह अंतिम आश्रय स्थल हैं, जिसकी उपमा संसार में हो ही नहीं सकती! देवलोक और इन्द्रलोक बभी इसके सामने तुच्छ हैं! यहाँ भौतिकता का बिलकुल ही अस्तित्व नहीं हैं! सिद्धाश्रम पूर्णतः आध्यात्मिक एवं पारलौकिक भावनाओं और चिन्तनो से सम्बंधित हैं! यह जीवन का सौभाग्य होता हैं, यदि सशरीर ही व्यक्ति वहां पहुँच पाए!
सिद्धाश्रम शब्द ही अपने-आप में जीवन की श्रेष्ठता और दिव्यता हैं, वहां पहुचना ही मानव देह की सार्थकता हैं! जब व्यक्ति सामान्य मानव जीवन से उठकर साधक बनता हैं, साधक से योगी और योगी से परमहंस बनता हैं, उसके बाद ही सिद्धाश्रम प्रवेश की सम्भावना बनती हैं, जिसके कण-कण में अद्भुत दिव्यता का वास हैं, जिसके वातावरण में एक ओजस्वी प्रवाह हैं, जिसकी वायु में कस्तूरी से भी बढ़कर मदहोशी हैं, जिसके जल में अमृत जैसी शीतलता हैं तथा जिसके हिमखंडों में चांदी-सी आभा निखरती प्रतीत होती हैं!
आज भी जहाँ ब्रह्मा उपस्थित होकर चारों वेदों का उच्चारण करते हैं! जहाँ विष्णु सशरीर उपस्थित हैं! जहाँ भगवन शंकर भी विचरण करते दिखाई देते हैं! जहाँ उच्चकोटि के देवता भी आने के लिए तरसते हैं! जहाँ गन्धर्व अपनी उच्च कलाओं के साथ दिखाई देते हैं! जहाँ मुनि, साधू, सन्यासी एवं योगी अपने अत्यंत तेजस्वी रूप में विचरण करते हुए दिखाई देते हैं! जहाँ पशु-पक्षी भी हर क्षण अपनी विविध क्रीडाओं से उमंग एवं मस्ती का बोध कराते हैं!
सिद्धाश्रम में गंधर्वों के मधुरिम संगीत पर अप्सराओं के थिरकते कदम, सिद्धयोग झील में उठती-टूटती तरंगों की कलकल करती ध्वनि, पक्षियों का कलरव तथा भंवरों के गुंजन..... सभी में गुरु-वंदना का ही बोध होता रहता हैं!
“पूज्यपाद स्वामी सच्चिदानंद जी” सिद्धाश्रम के संस्थापक एवं संचालक हैं, जिनके दर्शन मात्र से ही देवता धन्य हो जाते हैं, जिनके चरणों में ब्रह्मा, विष्णु एवं रूद्र स्वयं उपस्थित होकर आराधना करते हैं, रम्भा, उर्वशी, और मेनका नृत्य करके अपने सौभाग्य की श्रेयता को प्राप्त करती हैं! जिनका रोम-रोम तपस्यामय हैं! जिनके दर्शन मात्र से ही पूर्णता प्राप्त होती हैं!
सिद्धाश्रम में मृत्यु का भय नहीं हैं, क्योंकि यमराज उस सिद्धाश्रम में प्रवेश नहीं कर पते! जहाँ वृद्धता व्याप्त नहीं हो सकती, जहाँ का कण-कण यौवनवान और स्फूर्तिवान बना रहता हैं! जहाँ के जीवन में हलचल हैं, आवेग हैं, मस्ती हैं, तरंग हैं! जहाँ उच्चकोटि क्र ऋषि अपने शिष्यों को ज्ञान के सूक्ष्म सूत्र समझा रहे होते हैं! कहीं पर साधना संपन्न हो रही हैं, कहीं पर मन्त्रों के मनन-चिंतन हो रहे हैं! कहीं पर यज्ञ का सुगन्धित धूम्र चारो और बिखरा हुआ हैं! जहाँ श्रेष्ठतम पर्णकुटीर बनी हुयी हैं, उनमें ऋषि, मुनि और तापस-गण निवास करते हैं!

Wednesday, December 1, 2010

samadhi mantra

Monday, October 18, 2010

Guru Mantra Mystery Part -4

गुरु मंत्र रहस्य भाग - ४

'अगले बीज 'यो' का अर्थ है - 'योनी'| मानव जन्म के विषय में कहा जाता है, कि यह तभी प्राप्त होता है, जब जीव विभिन्न, चौरासी लाख योनियों में विचरण कर लेता है, परन्तु इस बीज के दिव्य प्रभाव से व्यक्ति अपनी समस्त पाप राशि को भस्म करने में सफल हो जाता है और फिर उसे पुनः निम्न योनियों में जन्म लेना नहीं पड़ता|

'योनी का एक दूसरा अर्थ है - शिव कि शिवा (शक्ति), ब्रह्माण्ड का मुख्य स्त्री तत्व, ऋणात्मक शक्ति| सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड इसी शक्ति के फलस्वरूप गतिशील है और साधक इस बीज को सिद्ध कर लेता है, उसके शरीर में हजारों अणु बमों की शक्ति उतर आती है|'

मैं उनकी ओर भाव शून्य आँखों से ताक रहा था| मेरे संशय युक्त चहरे पर देख उन्होनें मुझे आश्वस्त करने के लिये एक शब्द भी नहीं कहा, बल्कि ऐसा कुछ किया, जो इससे लाख गुणा बेहतर था| उन्होनें अपनी दृष्टि एक विशाल चट्टान पर स्थिर कि, जो कि मेरी दाहिनी तरफ लगभग १५ मीटर की दूरी पर स्थित थी... और दुसरे ही क्षण एक भयंकर विस्फोट के साथ उसका नामोनिशान मिट गया|

भय और विस्मय एक साथ मेरे चहरे पर क्रीडा कर रहे थे, साथ ही मेरे रक्तहीन चेहरे पर विश्वास कि किरणें भी उभर रही थीं| उन्होनें अपनी 'कथनी' को 'करनी' में बदल दिया था, इससे अधिक और क्या हो सकता था...

'इसके अलावा- उन्होनें सामान्य ढंग से बात आगे बढाई, मानो कुछ हुआ न हो - 'ऐसा व्यक्ति अपने दिव्य व्यक्तित्व को छुपाने के लिए दूसरों पर माया का एक आवरण डाल सकता है, अद्वितीय एवं सर्वोत्तम व्यक्तित्व होने पर भी वह इस तरह बर्ताव करता है, कि आसपास के सभी लोग उसे सामान्य व्यक्ति समझने की भयंकर भूल कर बैठते हैं| वह सामान्य लोगों की तरह ही उठता-बैठता है, खाता-पीता है, हसता-रोता है, अतः लोग उसके वास्तविक स्वरुप को न तो देख पाते हैं और न ही पहचान पाते हैं|'

सूर्य पश्चिमी क्षितिज पर अपने मंद प्रकाश की छटा बिखेरता हुआ अस्तांचल की ओर खिसक रहा था, पशु-पक्षी अपने-अपने घरों की ओर विश्राम के लिए जा रहे थे| मैं उसी मुद्रा में बुत सा विस्मय के साथ त्रिजटा के द्वारा इन रहस्यों को उजागर होते हुए सुन रहा था| हम कॉफ़ी पी चुके थे और उसकी सामग्री शुन्य में उसी रहस्यमय ढंग से विलुप्त हो गई थी, जिस प्रकार से आई थी| मैं सोच रहा था, कि गुरु मंत्र में कितनी सारी गूढ़ संभावनाएं छुपी हुई हैं और मैं अज्ञानियों कि भांति तथाकथित श्रेणी की छोटी-मोटी साधनाओं के पीछे पडा हूं| मैं यही सोच रहा था, जब त्रिजटा कि किंचित तेज आवाज ने मेरे विचार-क्रम को भंग कर दिया|

'मैं देख रहा हूं, कि तुम ध्यान पूर्वक नहीं सुन रहे हो' - उसके शब्द क्रोधयुक्त थे - 'और यदि यहीं तुम्हारा व्यवहार है, तो मैं आगे एक शब्द भी नहीं कहूंगा|'

'ओह! नहीं...मैं तो स्वप्न में भी आपको या आपके प्रवचन की उपेक्षा करने की नहीं सोच सकता...मैं तो अपनी और दुसरे अन्य साधकों की न्यून मानसिकता पर तरस खा रहा हूं, जो कि गुरु मंत्र रुपी 'कौस्तुभ मणि' प्राप्त कर के भी दूसरी अन्य साधनाओं के कंकड़-पत्थरों की पीछे पागल हैं...'

एक अनिर्वचनीय मुस्कराहट उनके होठों पर फैल गई और उनकी आँखों में संतोष कि किरणें झलक उठी| वे समझ गए, कि मैंने उनकी हर बात बखूबी हृदयंगम कर ली है, अतः वे अत्याधिक प्रसन्न प्रतीत हो रहे थे|

'आखिरी शब्द का पहला बीज है 'न' अर्थात 'नवीनता', जिसका अर्थ है - एक नयापन, एक नूतनता और ऐसी अद्वितीय क्षमता, जिसके द्वारा व्यक्ति अपने आपको अथवा दूसरों को भी समय की मांग के अनुसार ढाल सकता है, बदल सकता है या चाहे तो ठीक इसके विपरीत भी कर सकता है अर्थात समय को अपनी मांगों के अनुकूल बना सकता है| जो व्यक्ति इस बीज को पूर्णता के साथ आत्मसात कर लेता है, वह किसी भी समाज में जाएं, वहां उसे साम्मान प्राप्त होता है, फलस्वरूप वह हर कार्य में सफल होता हुआ शीघ्रातिशीघ्र शीर्षस्थ स्थान पर पहुंच जाता है, जीवन में उसे किसी भी प्रकार की कोई कमी महसूस नहीं होती|'

'वह किसी भी व्यवसाय में हाथ डाले, हमेशा सफल होता है और समय-समय पर वह अपने बाह्य व्यक्तित्व को बदलने में सक्षम होता है, उदाहरण के तौर पर अपना कद, रंग-रूप, आँखों का रंग आदि| जब कोई उसे व्यक्ति उससे मिलता है, हर बार वह एक नवीन स्वरुप में दिखाई देता है| ऐसा व्यक्ति अपनी इच्छानुसार हर क्षण परिवर्तित हो सकता है और अपने आसपास के लोगों
को आश्चर्यचकित कर सकता है|'

'इसका सूक्ष्म अर्थ यह है, कि उसका कोई भी व्यक्तित्व इतनी देर तक ही रहता है, कि वह इच्छाओं एवं विभिन्न पाशों में जकड़ा जाये| हर क्षण पुराना व्यक्तित्व नष्ट होकर एक नवीन, पवित्र, व्यक्तित्व में परिवर्तित होता रहता है| इसी को नवीनता कहते हैं| ऐसा व्यक्ति हर प्रकार के कर्म करता हुआ भी उनसे और उनके परिणामों से अछूता रहता है|'

'अंतिम बीज 'म' 'मातृत्व' का बोधक है, जिसका अर्थ है असीमित ममता, दया और व्यक्ति को उत्थान की ओर अग्रसर करने की शक्ति, जो मात्र माँ अथवा मातृ स्वरूपा प्रकृति में ही मिलती है| माँ कभी भी क्रूर एवं प्रेम रहित नहीं हो सकती, यही सत्य है| शंकराचार्य ने इसी विषय पर एक भावात्मक पंक्ति कही है -


'कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति|'

अर्थात 'पुत्र तो कुमार्गी एवं कुपुत्र हो सकता है, परन्तु माता कभी कुमाता नहीं हो सकती| वह हमेशा ही अपनी संतान को अपने जीवन से ज्यादा महत्त्व देती है|'

'इस बीज को साध लेने से व्यक्ति स्वयं दया और मातृत्व का एक सागर बन जाता है| फिर वह जगज्जननी मां की भांति ही हर किसी के दुःख और परेशानियों को अपने ऊपर लेने को तत्पर हो, उनको सुख पहुंचाने की चेष्टा करता रहता है| वह अपनी सिद्धियों और शक्तियों का उपयोग केवल और केवल दूसरों की एवं मानव जाति कि भलाई के लिए ही करता है| बुद्ध और महावीर इस स्थिति के अच्छे उदाहरण है|'

त्रिजटा अचानक चुप हो गए और अब वे अपने आप में ही खोये हुए मौन बैठे थे| मर्यादानुकुल मुझ उनके विचारों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए था, परन्तु मैं तो गुरु मंत्र के विषय में ज्यादा से ज्यादा जानने का व्यग्र था|

मैं जान-बूझ कर कई बार खांसा और अंततः उनकी आँखें एक बार फिर मेरी ओर घूम गई ..वे गीली थीं...

'जो कुछ भी मैंने गुरु मंत्र के बारे में उजागर किया है' ...उन्होनें कहा - 'यह वास्तविकता का शतांश भी नहीं है और सही कहूं तो यदि कोई इसकी दस ग्रंथों में भी विवेचना करना चाहे, तो यह संभव नहीं, परन्तु ...' उनकी आंखों का भाव सहसा बदल गया था - 'परन्तु मैं सौ से ऊपर उच्चकोटि के योगियों, संन्यासियों, यतियों को जानता हूं, जिनके सामने सारा सिद्धाश्रम नतमस्तक है और उन्होनें इसी षोड़शाक्षर मंत्र द्वारा ही पूर्णता प्राप्त की है...'

'कई गृहस्थों ने इसी के द्वारा जीवन में सफलता और सम्पन्नता की उचाईयों को छुआ है| औरों की क्या कहूं स्वयं मैंने भी 'परकाया प्रवेश सिद्धि' और 'ब्रह्माण्ड स्वरुप सिद्धि' इसी मंत्र के द्वारा प्राप्त की है..'

उनकी विशाल देह में भावो के आवेग उमड़ रहे थे| वे किसी खोये हुए बालक की भांति प्रतीत हो रहे थे, जो अपनी मां को पुकार रहा हो, प्रेमाश्रु उनके चहरे पर अनवरत बह रहे थे, जबकि उनके नेत्र उगते हुए चन्द्र की ज्योत्स्ना पर लगे हुए थे|

'तुम इस व्यक्तित्व (श्री नारायण दत्त श्रीमालीजी) अमुल्यता की कल्पना भी नहीं कर सकते, जिसका मंत्र तुम सबको देवताओं की श्रेणी में पहुंचाने में सक्षम है|'


"श्री सार्थक्यं नारायणः'
- 'वे तुम्हें सब कुछ खेल-खेल में प्रदान कर सकते हैं| अभी भी समय है, कंकड़-पत्थरों को छोडो और सीधे जगमगाते हीरक खण्ड को प्राप्त कर लो|'

ऐसा कहते-कहते उन्होनें मेरी ओर एक छटा युक्त रुद्राक्ष एव स्फटिक की माला उछाली और तीव्र गति से एक चट्टान के पीछे पूर्ण भक्ति भाव से उच्चरित करते हुए चले गए -


नमस्ते पुरुषाध्यक्ष नमस्ते भक्तवत्सलं |
नमस्तेस्तु ऋषिकेश नारायण नमोस्तुते ||


बिजली की तीव्रता के साथ मैं उठा और त्रिजटा के पीछे भागा..परन्तु चट्टान के पीछे कोई भी न था..केवल शीतल पवन तीव्र वेग से बहता हुआ मेरे केश उड़ा रहा था| वे वायु में ही विलीन हो गए थे| मैं मन ही मन उस निष्काम दिव्य मानव को श्रद्धा से प्रणिपात किया, जिसने गुरु मंत्र के विषय में गूढ़तम रहस्य मेरे सामने स्पष्ट कर दिए थे|

..तभी अचानक मेरी दृष्टी नीचे अन्धकार से ग्रसित घाटी पर गई, ऊपर शून्य में 'निखिल' (संस्कृत में पूर्ण चन्द्र को 'निखिल' भी कहते हैं) अपने पूर्ण यौवन के साथ जगमगा कर चातुर्दिक प्रकाश फैला रहा था और ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो सारा वायुमंडल, सारी प्रकृति उस दिव्य श्लोक के नाद से गुज्जरित हो रही हो -


नमस्ते पुरुषाध्यक्ष नमस्ते भक्तवत्सलं |
नमस्तेस्तु ऋषिकेश नारायण नमोस्तुते ||



-मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान, जुलाई २०१०

Guru Mantra Mystery Part -3

गुरु मंत्र रहस्य भाग - ३

'अगला बीज है 'य', जिस्से बनाता है 'यम' (यम-नियम), अर्थात जीवन को एक सही, पवित्र एवं लय के साथ जीने का तरीका| इसके द्वारा व्यक्ति को एक अद्वितीय, आकर्षक शरीर प्राप्त हो जाता है और उसका व्यक्तित्व कई गुना निखर जाता है| जो कोई भी उसके सम्पर्क में आता है, वह स्वतः ही उसकी और आकर्षित हो जाता है और उसकी हर एक बात मानाने को तैयार हो जाता है|'

'एक और महत्वपूर्ण बात यह है, कि ऐसा व्यक्ति 'यम' (जो यहां यमराज को इंगित करता है) पर पूर्ण विजय प्राप्त कर लेता है और आश्वस्त हो जाता है, साधारण शब्दों में वह मृत्युंजय हो जाता है, अमर हो जाता है, मृत्यु कभी उसका स्पर्श नहीं कर सकती...मुझे एक बेवकूफ की भांति घूरने की जरूरत नहीं (शायद उसने मेरी आँखों में उभरती संशय की लकीरों को देख लिया था)| गोरखनाथ, वशिष्ठ, हनुमान आदि ने इस उपलब्धि को प्राचीन काल में प्राप्त किया है, यह कोई नवीन स्थिति नहीं|'

वे सत्य ही कह रहे थे| 'फिर आता है 'ना' यानी 'नाद', 'अनहद नाद' अर्थात दिव्य संगीत, एक आनंदमय, शक्तिप्रद गुन्जरण, जो कि ऐसे व्यक्ति के आत्म में, जो नित्य गुरु मंत्र का जप करता है, गुंजरित होता रहता है| यह नाद वास्तव में व्यक्ति की वास्तविकता पर बहुत निर्भर करता है| उदाहरणतः जो व्यक्ति भक्ति के पथ पर कायल हो, उसे साधारणतः बांसुरी जैसी ध्वनि सुनाई देती है, जो भगवान श्रीकृष्ण का प्रिय वाद्य है| इसके अतिरिक्त ज्ञान मार्ग पर अग्रसर होने वाले (ज्ञानी) को अधिकतर ज्ञान स्वरुप भगवान शिव का डमरू का शाश्वत नाद सुनाई पड़ता है|'

अदभुत! - मैंने कहा - 'परन्तु यही दो ध्वनियाँ है, जो साधक के समक्ष उपस्थित होती हैं?'

'नहीं, ऐसा तो निश्चित मापदण्ड नहीं है, फिर भी ये दो प्रकार के नाद ही मुख्य हैं और अधिकांशतः सुनाई पड़ते हैं| जो व्यक्ति इस स्थिति पर पहुंच जाता है, वह स्वतः ही संगीत में पारंगत हो जाता है उसकी आवाज अपने आप सुरीली, मधुरता युक्त और एक आकर्षण लिये हुए हो जाती है| जो कोई भी उसे सुनता है, वह एक अद्वितीय आनन्द वर्षा से सरोबार हो जाता है और सभी परेशानियों से मुक्त होता हुआ, असीम शान्ति अनुभव करता है|'

'अगला बीज है 'रा' यानी 'रास' जिसका अर्थ है...एक दिव्य उत्सव, एक अनिवर्चनीय मस्ती, जो कि मानव जीवन की असली पहचान है| क्या तुम बिना उत्साह, ख़ुशी और जीवन्तता के जीने का कल्पना कर सकते हो? क्या तुम बिना उत्सव और प्रसन्नता के जीवन की विषय में विचार कर सकते हो? नहीं| इसलिए इस बीज मंत्र की मदद से व्यक्ति अपने जीवन में उस तत्व को उतार पाने में सफल होता है, जिसके द्वारा उसका सम्पूर्ण जीवन परिवर्तित हो जाता है, दरिद्रता, सम्पन्नता में बदल जाती है, दुःख खुशियों में परिवर्तित हो जाते हैं, शत्रु मित्र बन जाते हैं और असफलताएं सफलताओं में परिवर्तित हो जाती हैं'

'यदि इसका सूक्ष्म विवेचन किया जाय, तो यह उस गुप्त प्रक्रिया को दर्शाता है, जो द्वापर में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गोपियों पर की गई थी| वास्तव में महारास एक ऐसी प्रक्रिया थी, जिसके द्वारा कुण्डलिनी शक्ति को मूलाधार में स्पन्दित के ऊपर की ओर अग्रसर किया जाता है| इस बीज के अनवरत जप से व्यक्ति सहज ही भाव समाधि में पहुंच जाता है वह गुरु में लीन हो जाता है और उसकी कुण्डलिनी पूर्णतः जाग्रय हो जाती है, फलस्वरूप सह्गैनी सिद्धियां जैसे कि परकाया प्रवेश, जलगमन अटूट लक्ष्मी एवं असीमित शक्ति व्यक्ति को सहज ही प्राप्त हो जाती है|'

ऐसा कहते कहते उन्होनें अपना दाहिना हाथ हवा में उठाया और दुसरे ही क्षण उसमें एक केतली और दो गिलास आ गए| केतली में से बाष्प निकल रही थी| आश्चर्य से मेरा मुंह खुला रह गया और एक विस्मय से उनकी ओर देखता रह गया| उन्होनें केतली मेर से कोई तरल पदार्थ गिलास में डाला और एक गिलास मेरी ओर बढ़ा दिया| वह पेरिस की मशहूर 'क्रीम्ड कॉफ़ी' थी|

'हां, मैं जानता हूं, कि तुम क्या सोच रहे हो?' - त्रिजटा ने एक चुस्की लेते हुए कहा - 'पर विशवास करो, यह कोई असामान्य घटना नहीं हैं, क्योंकि हर व्यक्ति के अन्दर ऐसी शक्तियां निहित हैं, जरूरत है मात्र उनको उभारने की|'

उन्होनें फिर एक चुस्की भरी और तरोताजा हो उन्होनें अपना प्रवचन प्रारम्भ किया - 'अगला बीज है 'य' और इसका तात्पर्य है 'यथार्थ' अर्थात वास्तविकता, सच्चाई, परम सत्य| इस बीज पर मनन करने से व्यक्ति को अपनी न्यूनताओं का भान होता है और वह पहली बार इसके कारण अर्थात 'माया' के स्वरुप देखता है और जान पाता है|'

'यदि व्यक्ति नित्य गुरु मंत्र का जप करे, तो वह माया जाल को काटने में सफल हो सकता है जिसमें कि वह जकड़ा हुआ है, स्वतः ही उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और वह 'दिव्य बोध' से युक्त हो जाता है, एक जाग्रत अवस्था प्राप्त कर लेता है, फिर वह समाज में रह कर एवं नाना प्रकार के लोगों से मिल कर भी अपनी आतंरिक पवित्रता एवं चेतना बनाए रखने में सफल होता है, ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार एक कमल कीचड़ में खिल कर भी अछूता रहता है|'

'जनक की तरह...!' - स्वतः ही मेरे मुंह से निकला!
'हां, जनक की तरह, राम, कृष्ण और नानक की तरह..!'

'इसके उपरांत आता है बीज मंत्र 'ण', जो कि 'अणु' या ब्रह्म की शक्ति अपने में निहित किये हुए है| ब्रहम के विषय में एक जगह कहा गया है - 'अणोरणीयाम' अर्थात सूक्ष्मतम पदार्थ अणु से भी हजारों गुना सूक्ष्म क्योंकि वह तो अणुओं में भी व्याप्त है|'

'तो इस बीज के नित्य उच्चारण से व्यक्ति ब्रह्म स्वरुप हो जाता है| वह हर पदार्थ में खुद को ही देखता है, हर स्वरुप में खुद के ही दर्शन करता है, चाहे वह पशु हो, व्यक्ति हो अथवा पत्थर| दया, ममता उसकी प्रकृति बन जाते हैं और वह समस्त विश्व को 'वसुधैव कुटुम्बकम' की दृष्टि से देखता है| वह किसी की मदद अथवा सेवा करने का कोई भी अवसर नहीं गवाता और..'

'और?'

'और वह स्वतः उन गोपनीय अष्ट सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है, जो कि ग्रंथो में वर्णित है| अणिमा, महिमा, गरिमा इत्यादि उसे प्राप्त हो जाती हैं, हालांकि यह अलग बात है, कि वह उनका उपयोग नहीं करता और एक अति सामान्य मनुष्य की भांति ही प्रतीत होता है|'

'इसके बाद आता है 'य' अर्थात 'यज्ञ' और इस बीज को निरन्तर जपने से व्यक्ति स्वतः ही यज्ञ शास्त्र एव यज्ञ विज्ञान में परंगत हो जाता है, उसे प्राचीन गोपनीय तथ्यों का पूर्ण ज्ञान हो जाता है और वह विद्वत समाज द्वारा पूजित होता है, धन एवं वैभव की देवी महालक्ष्मी उसके गृह में निरन्तर स्थापित रहती है और वह धनवान, ऐश्वर्यवान हो संतोष पूर्वक एवं शान्ति पूर्वक अपना जीवन निर्वाह करता है|'

'यज्ञ शब्द का गूढ़ अर्थ है - अपने समस्त शुभ एवं अशुभ कर्मों की आहुति को 'ज्ञान की अग्नि' के द्वारा गुरु के चरणों में समर्पित करना| यही वास्तविक यज्ञ है और व्यक्ति इस स्थिति को इस बीज मंत्र के जप मात्र से शीघ्र ही प्राप्त कर लेता है, जिससे कि वह कर्मों के कठोर बन्धन से मुक्त हो जन्म-मृत्यु के आवागमन चक्र से भी छूट जाता है|'

'अगला बीज है 'गु' अर्थात 'गुन्जरण' और यह व्यक्ति के आतंरिक शरीरों - भू, भवः, स्वः, मः, जनः, तपः, सत्यम - से उसके चित्त के योग को दर्शाता है| यह अत्यंत ही उच्च एवं भव्य स्थिति है, जिसे प्राप्त कर वह योगी अन्य योगियों में श्रेष्ठ कहलाता है और 'योगिराज' की उपाधि से विभूषित हो जाता है| ऐसे व्यक्ति की देवता एवं श्रेष्ठ ऋषि भी पूजा करते हैं और उसकी झलक मात्र के लिये लालायित रहते हैं|'

'चूंकि 'गु' गुरु का भी बीज मंत्र हैं अतः इसको जपने से व्यक्ति स्वतः ही गुरुमय हो जाता है और गुरु का सारा ज्ञान, शक्तियां एवं तेजस्विता उसके शरीर में उतर जाती हैं| वह समस्त विश्व में पूजनीय हो जाता है और इच्छानुसार किसी भी लोक अथवा गृह में आ-जा सकता है|'

'परा जगत के लोग एवं गृह... तो क्या पृथ्वी के अलावा भी जीवन की स्थिति है?

'कैसे मूर्खों का प्रश्न है?' - त्रिजटा कुछ उत्तेजित होकर बोले - 'क्या तुम सोचते हो कि मात्र पृथ्वी पर ही जीवन है? तुम लोग अहम् से इतने पीड़ित हो, कि अपने आपको ही 'भगवान् द्वारा चुने गए' समझते हो' - वे व्यंग से मुस्कुराये|

'परन्तु एक बार तुम इस बीज को साध लो, तो तुम कोई अदभुत और अनसुनी घटनाओं के साक्षी बन जाओगे| बेशक देर से ही सही अब तो विज्ञान ने भी अन्य लोकों पर जीवन के तथ्य को स्वीकार कर लिया है|'

'फिर आता है 'रु' अर्थात रूद्र जो कि इस ब्रह्माण्ड का मुख्य पुरुष तत्व है, उसे चाहे गुणात्मक शक्ति कहो या शिव अथवा कुछ और| इस बीज को सिद्ध करने पर व्यक्ति कभी वृद्ध नहीं होता, न ही काल-कवलित होता है और न ही उसे बार-बार जन्म लेता पड़ता है| वह सर्वव्यापी, सर्वज्ञाता एवं सर्वशक्तिशाली हो जाता है|'

'वह चाहे, तो विश्वामित्र की भांति एक नवीन सृष्टि रच सकता है और शिव की तरह उसे नष्ट भी कर सकता है सम्पूर्ण प्रकृति उसके इशारों पर नृत्य करती प्रतीत होती है| उसे भोजन, जल, निद्रा आदि कि आवश्यकता नहीं होती, परिणाम स्वरुप उसे मल-मूत्र विसर्जन भी नहीं करना पड़ता| एक स्वर्णिम, दिव्य आभा मंडल उसके चतुर्दिक बन जाता है और प्रत्येक व्यक्ति, जो उसके समीप आता है, उससे प्रभावित होता है और उसका भी आध्यात्मिक उत्थान हो जाता है, उसकी सारी इच्छाएं स्वतः पूर्ण हो जाति हैं|'

Guru Mantra Mystery Part -2

गुरु मंत्र रहस्य भाग - २

आखिर में उन्होनें आश्वस्त होकर निम्न बातें बताई| हमारा गुरु मंत्र 'ॐ परम तत्त्वाय नारायणाय गुरुभ्यो नमः' का बाह्य अर्थ है, कि, - 'ही नारायण! आप सभी तत्वों के भी मूल तत्व हैं और सभी साकार और निर्विकार शक्तियों से भी परे हैं, हम आपको गुरु रूप में श्रद्धापूर्वक नमन करते हैं|'...यह मंत्र किसी के द्वारा रचित नहीं है, जब गुरुदेव के चरण पहली बार दिव्य भूमि सिद्धाश्रम में पड़े, तो स्वतः ही दसों दिशाएं और सारा ब्रह्माण्ड इस तेजस्वी मंत्र की ध्वनि से गुंजरित हो उठा था, ऐसा लग रहा था, मानो सारा ब्रह्माण्ड उस अद्वितीय अनिर्वचनीय विभूति का अभिनन्दन कर रहा हो...'

'उसी दिन से गुरुदेव अपने शिष्यों को दीक्षा देते समय यही मंत्र प्रदान करते हैं, जो कि वास्तव में ब्रह्माण्ड द्वारा गुरुदेव के वास्तविक स्वरुप का प्रकटीकरण है|'


'तो क्या वे...' - मैं अपने आपको रोक न सका| 'श S S S ..' उन्होनें अपने मूंह पर उंगली रखते हुए मुझे आलोचनात्मक दृष्टी से देखा - 'बीच में मत बोलो, बस ध्यानपूर्वक सुनते रहो|

मुझे आखें नीचे किये सर हिलाते देख कर वे आगे बोले - 'यह सोलह बीजाक्षरों से युक्त मंत्र उन षोडश दिव्य कलाओं को दर्शाता है, जिसमें गुरुदेव परिपूर्ण हैं| ये ब्रह्माण्ड की सर्वश्रेष्ठ अनिर्वचनीय सिद्धियों के भी प्रतिक हैं| अब में एक-एक करके इस मंत्र के हर बीज को तुम्हारे सामने स्पष्ट करूंगा और उसमें निहित शक्तियों के बारे में बताउंगा| अच्छा, ज़रा तुम गुरु मंत्र बोलो तो!'

"ॐ परम तत्त्वाय नारायणाय गुरुभ्यो नमः"

'बहुत खूब!, उन्होनें मेरी पीठ थपथपाते हुए कहा - 'अच्छा, तो सबसे पहले हम पहला बीज 'प' लेते हैं| क्या तुम इसके बारे में बता सकते हो? नहीं, तो मैं बताता हूं| इसका अर्थ है - 'पराकाष्ठा', अर्थात जीवन के हर क्षेत्र में, हर आयाम में सर्वश्रेष्ठ सफलता, ऐसी सफलता जो और किसी के पास न हो| इस बीज मंत्र के जपने मात्र से एक सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी अपने जीवन को सफलता की अनछुई उंचाई तक ले जा सकता है, चाहे वह भौतिक जीवन हो अथवा आध्यात्मिक| ऐसे व्यक्ति को स्वतः ही अटूट धन-संपदा, ऐश्वर्य, मान, सम्मान प्राप्त हो जाता है| वह भीड़ में भी 'नायक' ही रहता है, वह मानव जाति का 'मार्गदर्शक' कहलाता है और आने वाली पीढियां उसे 'युगपुरुष' कह कर पूजती हैं|

'इसके द्वारा व्यक्ति को सूक्ष्म एवं दिव्य दृष्टी भी प्राप्त हो जाती ई और वह 'काल ज्ञान' में भी पारंगत हो जाता है| अतः वह आसानी से किसी भी व्यक्ति, सभ्यता और देश के भूत, भविष्य और वर्त्तमान को आसानि से देख लेता है|'

'वाह!' - मेरे मूंह से सहज निकल पडा| 'हां, पर ... क्या तुम और भी जानना चाहोगे या तुम इतने से ही खुश हो' - उनकी आँखों में शरारत झलक रही थी|

'नहीं! रुकिए मत! मैं सब कुछ जानना चाहता हूं|' वे मेरी परेशानी में प्रसन्नता महसूस कर रहे थे और मेरी व्यग्रता उन्हें एक संतोष सा प्रदान कर रही थी|

'तो अब हम दुसरे बीज 'र' को लेते हैं| यह शरीर में स्थित 'अग्नि' को दर्शाता है, जिसका कार्य व्यक्ति को रोग, दुष्प्रभावों आदि से बचाना है| इसके अलावा यह इच्छित व्यक्तियों को 'रति सुख' (काम) प्रदान करता है, जो मानव जीवन की एक आवश्यकता है|'

'यह सूक्ष्म अग्नि का भी प्रतिनिधित्व करता है, जो कि ऊपर बताई गई अग्नि से भिन्न होता हैं इसका कार्य, व्यक्ति के चित्त से उसकी सारी कमियों और विकारों को जला कर पवित्र करता है| ये विकार 'पांच विकारों' के नाम से जाने जाते हैं| अच्छा ज़रा बताओ तो, वे कौन-कौन से हैं?'

'काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार|'

'बिल्कुल सही| इन पांच मुख्य व्याधियों अथवा विकारों को नष्ट करने से मानव चेतना का पवित्रीकरण हो जाता है, उसमें दिव्यता आ जाती है और सबसे बड़ी बात यह है, कि सारे ब्रह्माण्ड का ज्ञान उसके मस्तिष्क में स्थित हो जाता है|'




'ऐसा व्यक्ति सबके द्वारा पूजनीय 'अग्नि विद्या' में पारंगत हो जाता है, और यदि वह पूर्ण विधि-विधान के साथ सही ढंग से इस बीज मंत्र का अनुष्ठान संपन्न कर लेता है, तो वह किसी भी इच्छित अवधि तक जीवित रह सकता है, सरल शब्दों में कहे तो भीष्म की तरह वह इच्छा मृत्यु की स्थिति प्राप्त कर लेता है|'

'तीसरा बीज है 'म', जो कि 'माधुर्य' को इंगित करता है| माधुर्य का तात्पर्य है - शरीर के अन्दर छिपा हुआ सत चित आनन्द, आत्मिक शान्ति| इस बीज को साध लेने से व्यक्ति के जीवन में, चाहे वह पारिवारिक हो अथवा सामाजिक, एक पूर्ण सामंजस्य प्राप्त हो जाता है, उसके जीवन के सभी बाधाएं एवं परेशानियां समाप्त हो जाती हैं| परिणाम स्वरुप उसे असीम आनन्द की प्राप्ति होती है और वह हर चीज को एक रचनात्मक दृष्टी से देखता है| उसकी संतान उसे आदर प्रदान करती है, उसके सेवक और परिचित उसे श्रद्धा से देखते है एवं उसकी पत्नी उसे सम्मान देती है और आजीवन वफादार रहती है| बेशक वह स्वयं भी एक दृढ़ एवं पवित्र चरित्र का स्वामी बन जाता है|'

'चौथा बीज 'त' तत्वमसि का प्रतिनिधित्व करता है, जिसका अर्थ है वह दिव्य स्थिति, जो कि उच्चतम योगी भी प्राप्त करने के लिए लालायित रहते हैं| तत्वमसि का अर्थ है - 'मैं तत्व हूं' या 'मैं ही वही हूं'| यह वास्तव में एके आध्यात्मिक चैतन्य स्थिति है, जब साधक पहली बार यह एहसास करता है, कि वह ही सर्वव्याप, सर्वकालीन एवं सर्वशक्तिशाली आत्मा है उसमें और परमात्मा (ब्रह्म) में लेश मात्र भी अन्तर नहीं है|




'इस बीज का अनुष्ठान सफलता पूर्वक करने पर व्यक्ति स्वतः ही अध्यात्म की उच्चतम स्थिति पर अवस्थित हो जाता है, यहां तक की आधिदैविक स्थितियां भी उसमे सामने स्पष्ट हो जाती हैं और वह इस बात से अनभिज्ञ नहीं रह जाता, कि वह पूर्ण 'ब्रह्ममय' हैं उसे जो उपलब्धियां और सिद्धियां प्राप्त होती हैं, उसका तुम अनुमान भी नहीं कर सकते और न ही उन्हें शब्दों में ढालना संभव है| क्या अव्यक्त को व्यक्त किया जा सकता है? उसको तो केवल स्वयं ऐसी स्थिति प्राप्त कर अनुभव किया जा सकता है| बस तुम्हारे लिए इतना समझना काफी है, कि उससे असीमित शक्तियां प्राप्त हो जाती हैं| अच्छा पांचवा बीज बोलना तो ज़रा|'

'पांचवा बीज है.. ॐ परम तत्वा... 'वा'..."

"हां, यह मानव शरीर में व्याप्त पांच प्रकार की वायु को दर्शाता है, वे हैं - प्राण, अपान, व्यान, सामान और उदान| इन पांचो पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त कर ही, व्यक्ति क्रिया योग में पारंगत हो पाता है| 'क्रिया' का अर्थ उस तकनीक से है, जिसे इस्तेमाल कर व्यक्ति इच्छित परिणाम प्राप्त कर लेता है| क्रिया से मुद्राओं, बंधों एवं आसनों का अभ्यास शमित है, परन्तु यह एक लम्बी और दुस्साध्य प्रक्रिया है, जिसमें कोई ठोस परिणाम प्राप्त करने में कई वर्ष लग सकते हैं|"

'परन्तु इस गुरु मंत्र के उच्चारण से, जिसमें क्रिया योग का तत्व निहित है, व्यक्ति इस दिशा में महारत हासिल कर सकता है और अपनी इच्छानुसार कितने ही दिनों की समाधि ले सकता है|'

'इस बीज को साध लेने से व्यक्ति 'लोकानुलोक गमन' कि सिद्धि प्राप्त कर लेता है और पलक झपकते ही ब्रह्माण्ड के किसी भी लोक में जा कर वापिस आ सकता है| दूसरी उपलब्धि जो उसे प्राप्त होती है, वह है - 'वर' अर्थात वह जो कुछ कहता है, वह निकट भविष्य में सत्य होता ही है| सरल शब्दों में वह किसी को वरदान या श्राप दे सकता है|'

'परन्तु यह तो एक खतरनाक स्थिति है है, क्या आपको ऐसा नहीं लगता? मेरा मतलब है, कि व्यक्ति किसी को भी अवर्णनीय नुकसान पहुंचा सकता है|'

'अरे बिल्कुल नहीं! क्योंकि इस स्थिति पर पहुंचने पर साधक दया, ममता और मानवीयता के उच्चतम सोपान पर पहुंच जाता है| ऐसे व्यक्ति बिल्कुल लापरवाह नहीं होते और स्वार्थ से कोसों दूर होते हैं| अतः दूसरों को नुक्सान पहुंचाने की कल्पना वे स्वप्न में भी नहीं कर सकते| ठीक है न! अब मैं आगे बोलू?'

मैंने हां में सर हिलाया|






Guru Mantra Mystery Part -1

गुरु मंत्र रहस्य भाग -१


ॐ परम तत्वाय नारायणाय गुरुभ्यो नमः 


नए-नए साधक के मन में कुछ संशयात्मक प्रश्न, जो सहज ही घर कर बैठते हैं, वे हैं - मैं किस मंत्र को साधू? कौन सी साधना मेरे लिए अनुकूल रहेगी? किस देवता को मैं अपने ह्रदय में इष्ट का स्थान दूं?


ये प्रश्न सहज हैं, परन्तु इनके उत्तर इतने सहज प्रतीत नहीं होते, क्योंकि प्रथम तो इनके उत्तर कहीं भी स्पष्ट भाषा में नहीं मिलते, साथ ही यह बात भी निश्चित है, कि जब तक आप अत्यधिक व्यग्र हो कर जी-जान से चेष्टा नहीं करते, तब तक योग्य गुरु का सान्निध्य प्राप्त नहीं कर सकते| क्या इसका अर्थ यह निकाला जाय, कि अज्ञान के तिमिर में जीना ही हम सब का प्रारब्ध है? क्या इस दुविधाजनक स्थिति से निकलने का कोई उपाय नहीं?

यह शायद मेरा सुनहरा सौभाग्य ही था, कि हिमालय विचरण के दौरान मुझे विश्व प्रसिद्ध तंत्र शिरोमणि त्रिजटा अघोरी के दर्शन हुए| मैंने उनके बारे में कई आश्चर्यजनक तथ्य सुन रखे थे और इस बात से भी मैं परिचित था, कि वे गुरुदेव के प्रिय शिष्य हैं|

उस पहाड़ देहधारी मनुष्य के प्रथम दर्शन से ही मेरा शरीर रोमांचित हो उठा था.... मैं हर्षातिरेक एवं एक अवर्णनीय भय से थरथरा उठा, मेरे पाँव मानो जमीन पर कीलित हो गए, मेरा मुह आश्चर्य से खुल गया और एक क्षण मुझे ऐसा लगा मानो मेरी सांस रुक गई है .... इस स्थिति में मैं कितनी देर रहा, मुझे याद नहीं...हां! इतना अवश्य है, कि जब मैं प्रकृतिस्थ हुआ, तो वे मुस्कराहट बिखेरते हुए मेरे सामने थे, जबकि मैं एक चट्टान पर बैठा था ...

मैं दावे के साथ कह सकता हूं, कि कोई भी व्यक्ति, यहां तक कि तथाकथित 'सिंह के सामान निडर' पुरुष भी अकेले में उनके सामने प्रस्तुत होने में संकोच करेगा .... इतना अधिक तेजस्वी एवं भयावह स्वरुप है उनका| शायद मैं यह जानता था, कि वे मेरे गुरु भाई हैं, या शायद उनके चेहरे पर उस समय ममत्व के भाव थे, जो मैं उनके सामने बैठा रह सका... थोड़ी देर उनसे बात हुई, तो मेरा रहा-सहा संकोच भी जाता रहा...उन्हें गुरुदेव द्वारा 'टेलीपैथी' से मुझसे मिलने का आदेश मिला था (इस भ्रमण के दौरान यह मेरी आतंरिक इच्छा थी, कि मैं त्रिजटा से मिलूं और शायद गुरुदेव ने इसे जान लिया था) और उन्हें मेरा मार्गदर्शन करने को कहा था|

उस समय मेरा मन भी इस प्रकार के संशयात्मक प्रश्नों से ग्रस्त था और उन पर विजय प्राप्त करने के लिए मैं उनसे जूझता रहता था| पर मुझे जल्दी ही इस बात का अहेसास हो गया था, कि मैं एक हारती हुई बाजी खेल रहा हूं और मेरे मस्तिष्क-पटल पर कई नवीन प्रश्न दस्तक देने लगे - मेरे जीवन का लक्ष्य क्या है? मुझे क्या करना चाहिए? मेरे लिए सर्वश्रेष्ठ पथ कौन सा है? आदि-आदि|

जब मैंने अपनी दुविधा त्रिजटा के समक्ष राखी, तो वे ठहाका लगा कर हंसाने लगे, मानो मेरी अज्ञानता पर उन्हें दया आई हो...और फिर उन्होनें जो कुछ भी तथ्य मेरे आगे स्पष्ट किये, उनके आगे तो तीनों लोक की निधियां भी तुच्छ हैं|

उन्होनें कहां - 'प्रत्येक मनुष्य इस प्रकार की समस्या का सामना कभी न कभी करता ही है, परन्तु केवल प्रज्ञावान एवं सूक्ष्म विवेचन युक्त व्यक्ति ही इससे पार हो सकता है; बाकी व्यक्ति इसमें उलझ जाते हैं और जीवन का एक स्वर्णिम क्षण अवसर गँवा देते हैं, अत्यंत सामान्य रूप से जीवन व्यतीत कर देते हैं|

'हमारे शास्त्रों में तैंतीस करोड़ देव-देवताओं की उपस्थिति स्वीकार की गई और उन सबके एकत्व रूप को ही 'परम सत्य' या 'परब्रह्म' कहा गया है, कि यदि साधक को पूर्णता प्राप्त करनी है, तो उस इन ३३ करोड़ देवी-देवताओं को सिद्ध करना पडेगा; परन्तु यह तभी संभव है, जब व्यक्ति लगातार पृथ्वी पर अपने पूर्व जन्मों की स्मृति के साथ हजारों जन्म ले अथवा वह हमेशा के लिए अजर-अमर हो जाये....'

'परन्तु ये दोनों ही रस्ते बड़े पेचीदा और असंभव सी लगने वाली कठिनाइयों से युक्त हैं| इसके अलावा तुम्हें ज्ञान नहीं होता, कि कब तुम्हारी छोटी सी त्रुटी की वजह से तुम्हारी वर्षों की तपस्या नष्ट हो जायेगी और तुम उंचाई से वापस साधारण स्थिति में आ गिरोगे|

'मैं अत्यधिक लम्बे समय से हिमालय में तपस्यारत हूं और असंभव कही जाने वाली साधनाएं भी सिद्ध कर चुका हूं| इतने वर्षों के अनुभव के बाद यह मेरी धारणा है कि सभी मन्त्रों में 'गुरु मंत्र' सर्वश्रेष्ठ मंत्र है, सभी साधनाओं में 'गुरु साधना' अद्वितीय है और गुरु ही सभी देवताओं के सिरमौर हैं| वे इस समस्त ब्रह्माण्ड को गतिशील रखने वाली आदि शक्ति हैं और कुछ शब्दों में कहा जाय, तो वे - 'साकार ब्रह्म' हैं|

मेरे चहरे पर आश्चर्य की लकीरें उभर आईं, जिसे देखकर उन्होनें कहा- 'तुम्हें यों अवाक होनी की जरूरत नहीं, मुझे इस बात का पूरा ज्ञान है, कि मैं क्या कह रहा हूं| भ्रमित तो तुम लोग हुए हो, तुम हर चीज को बिना गूढता से निरिक्षण किये ही मान लेते हो, तभी तो आज विभिन्न देवी-देवताओं की साधनाएं तुम्हारे मन-मस्तिष्क को इतना लुभाती हैं| तुम्हारी स्थिति उस मछली की तरह है, जो की नदी को ही सक्षम और अनंत समझती है, क्योंकि सागर की विशालता से अनभिज्ञ होती हैं|

'भगवान् शिव के अनुसार सभी देवी-देवताओं, पवित्र नदियां एवं तीर्थ गुरु के दक्षिण चरण के अंगुष्ठ में स्थित हैं, वे ही अध्यात्म के आदि , मध्य एवं अंत है, वे ही निर्माण, पालन, संहार एवं दर्शन, योग, तंत्र-मंत्र आदि के स्त्रोत्र हैं| वे सभी प्रकार की उपमाओं से परे हैं... इसीलिए यदि कोई पूर्णता प्राप्त करने का इच्छुक है, यदि कोई इमानदारी से 'दिव्य बोध' प्राप्त करने की शरण ग्रहण कर लेनी चाहिए और उनकी साधना एवं मंत्र को जीवन में उतारने की चेष्टा करनी चाहिए|'

'गुरु मंत्र' शब्दों का समूह मात्र न होकर समस्त ब्रह्माण्ड के विभिन्न आयों से युक्त उसका मूल तत्व होता है| अतः गुरु साधना में प्रवृत्त होने से पहले यह उपयुक्त होगा, कि हम गुरु मंत्र का बाह्य और गुह्य दोनों ही अर्थ भली प्रकार से समझ लें|

'पूज्य गुरुदेव द्वारा प्रदत्त गुरु मंत्र का क्या अर्थ है?- मैंने बीच में टोकते हुए पूछा| एक लम्बी खामोशी...जो इतनी लम्बी हो गई थी, कि खिलने लगती थी... उनके चहरे के भावों से मुझे अनुभव हुआ, कि वे निश्चय और अनिश्चय के बीच झूल रहे हैं| अंततः उनका चेहरा कुछ कठोर हुआ, मानो कोई निर्णय ले लिया हो| अगले ही क्षण उन्होनें अपने नेत्र मूंद लिये, शायद वे टेलीपैथी के माध्यम से गुरुदेव से संपर्क कर रहे थे; लगभग दो मिनिट के उपरांत मुस्कुराते हुए उन्होनें आंखे खोल दीं|

'उस मंत्र के मूल तत्व की तुम्हारे लिये उपयोगिता ही क्या हैं? मंत्र तो तुम जानते ही हो, इसके मूल तत्व को छोड़ कर इसकी अपेक्षा मुझसे आकाश गमन सिद्धि, संजीवनी विद्या अथवा अटूट लक्ष्मी ले लो, अनंत संपदा ले लो, जिससे तुम सम्पूर्ण जीवन में भोग और विलाद प्राप्त करते रहोगे... ऐसी सिद्धि ले लो, जिससे किसी भी नर अथवा नारी को वश में कर सकोगे|

एक क्षण तो मुझे ऐसा लगा, कि उनके दिमाग का कोई पेंच ढीला है, पर मेरा अगला विचार इससे बेहतर था| मैंने सूना था, कि उच्चकोटि के योगी या तांत्रिक साधक को श्रेष्ठ, उच्चकोटि का ज्ञान देने से पूर्व उसकी परिक्षा लेने, हेतु कई प्रकार के प्रलोभन देते हैं, कई प्रकार के चकमे देते हैं... वे भी अपना कर्त्तव्य बड़ी खूबसूरती से निभा रहे थे ...

करीब पांच मिनुत तक उनकी मुझे बहकाने की चेष्टा पर भी मैं अपने निश्चय पर दृढ़ रहा, तो उन्होनें एक लम्बी श्वास ली और कहा - 'अच्छा ठीक है, बोलो क्या जनता चाहते हो?'

'सब कुछ' - मैं चहक उठा - 'सब कुछ अपने गुरु मंत्र एवं उसके मूल तत्व के बारे में मेरा नम्र निवेदन है' कि आप कुछ भी छिपाइयेगा नहीं|'

- मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान जुलाई 2010

Wednesday, September 22, 2010

Shiver in mumbai on 3rr oct

Jay Gurudev….
Jaisa ki aapsavi ko pata hai ki kuch karno se MANTRA TATRA YANTRA VIGYAN patrika ka prasashan avi nahi ho pa raha hai……….
Par jald hai aapke intijar ki ye gadhia smapt ho gae aur SADGURUDEV NIKHIL JI ki yah patrika aapko prapt ho gae……par is karan se hui yeh asudhida ke lye kheed hai ki ham savi shiyesho ko gurudham(Mataji,Kailash Guruji aurArvindGuruji) aur shivero ke koi Jankari nahi mil pa rahi hai…….
Aur hum avi gurubhai/behen apne aas pass ke shivero ki jankari prapt nahi ho pane ke karan is shobhayg ke charo se vanchit na ho jye Islye yeh ham savi gurubhai/behno ka kartabye hai ki ape pass ke sthano me ho rahe karyakaram ki jankarri apne level best se savi gurubhai/behno tak jaroor pahuchaye….
Apni jankari tak aap savi ki jankari ke lye SHIVERO ke announce date aapko bata raha hu….
Date 3 OCTOBER’10 MUMBAI me Pujye Arvind Guruji ka shiver hai……address aur details ke liye waha ke aayagoko se sampark kare(FEB’10 ki magsine,pg no. 84)……..aur shiver sthal ki jankari samay rahte prapt kar lae…………..

Jay Gurudev…

मेरे गुरुदेव, मेरा सौभाग्य.मेरी


फिर वो दिन दूर नहीं होगा जब इस धरती पर प्रेम के ही बादल बरसा करेंगे, और उन जल बूंदों से जो पौधे पनपेगी, उस हरियाली से भारत वर्ष झूम उठेगा. फिर हिमालय का एक छोटा सा भू-भाग ही नहीं पूरा भारत ही सिद्धाश्रम बन जायेगा, और पूरा भारत ही क्यों, पूरा विश्व ही सिद्धाश्रम बन सकेगा! कौन कहता हैं, कि यह संभव नहीं हैं? एक अकेला मेघ खण्ड नहीं कर सकता यह सब, पूरी धरती को एक अकेला मेघ खण्ड नहीं सींच सकता अपनी पावन फुहारों से ….. परन्तु जब तुम सभी मेघ खण्ड बनकर एक साथ उड़ोगे, तो उस स्थान पर जहाँ प्रचंड धुप में धरती झुलस रही होगी, वहां पर बरसोगे तो एकदम से वहां का मौसम बदल जायेगा!

इसीलिए मैं तुम्हें कह रहा हूँ, की तुम्हें किसी एक जगह ठहर कर नहीं रहना हैं, तुम्हें तो गतिशील रहना हैं, खलखल बहती नदी की तरह, जिससे तुम्हारे जल से कई और भी प्यास बुझा सकी, क्योंकि वह जल तुम्हारा नहीं हैं, वह तो मेरा दिया हुआ हैं! इसलिए तुम्हें फ़ैल जाना हैं पुरे भारत में, पुरे विश्व में..... ...... और यूँ ही निकल पड़ना घर से निहत्थे एक दिन प्रातः को नित्य के कार्यों को एक तरफ रखकर, हाथ में दस-बीस पत्रिकाएँ लेकर..... और घर वापिस तभी लौटना जब उन पत्रिकाओं को किसी सुपात्र के हाथों में अर्पित कर तुमने यह समझ लिया हो, कि वह तुम्हारे सदगुरुदेव का और उनके इस ज्ञान का अवश्य सम्मान करेगा! ...... और फिर देख लेना कैसे नहीं सदगुरुदेव की कृपा बरसती हैं! तुम उसमें इतने अधिक भीग जाओगे, कि तुम्हें अपनी सुध ही नहीं रहेगी!


तुम भी तो....' (जुलाई-98 के अंक में मैंने तुम्हें पत्र दिया था यही तो उसका शीर्षक था) लेकिन अब 'तुम भी तो' नहीं वरन 'तुम ही तो' मेरे हाथ पैर हो, और फिर कौन कहता हैं, कि मैं शरीर रूप में उपस्थित नहीं हूँ! मैं तो अब पहले से भी अधिक उपस्थित हूँ! और अभी तुम्हें इसका एहसास शायद नहीं भी हो, कि मेरा तुमसे कितना अटूट सम्बन्ध हैं, क्योंकि अभी तो मैंने इस बात का तुम्हें पूरी तरह एहसास होने भी तो नहीं दिया हैं! पर वो दिन भी अवश्य आएगा, जब तुम रोम-रोम में अपने गुरुदेव को, माताजी को अनुभव कर सकोगे, शीघ्र ही आ सके, इसी प्रयास में हूँ और शीघ्र ही आएगा! मैंने तुम्हें बहुत प्यार से, प्रेम से पाला-पोसा हैं, कभी भी निखिलेश्वरानंद की कठोर कसौटी पर तुम्हारी परीक्षा नहीं ली हैं, हर बार नारायणदत्त श्रीमाली बनकर ही उपस्थित हुआ हूँ, तुम्हारे मध्य! और परीक्षा नहीं ली, तो इसीलिए कि तुम इस प्यार को भुला न सको, और न ही भुला सको इस परिवार को जो तुम्हरे ही गुरु भाई-बहिनों का हैं, तुम्हें उसी परिवार में प्रेम से रहना हैं!


समय आने पर, यह तो मेरा कार्य हैं, मैं तुम्हें गढ़ता चला जाऊंगा, और मैंने जो-जो वायदे तुमसे किये हैं, उन्हें मैं किसी भी पल भुला नहीं हूँ, तुम उन सब वायदों को अपने ही नेत्रों से अपने सामने साकार होते हुए देखते रहोगे! तुम्हारे नेत्रों में प्रेमाश्रुओं के अलावा और किसी सिद्धि की छह बचेगी ही नहीं, क्योंकि मेरा सब कुछ तो तुम्हारा हो चूका होगा, क्योंकि 'तुम्ही तो हो मेरे हो' -सदा की ही भांति स्नेहसिक्त आशीर्वाद. -तुम्हारा गुरुदेव. नारायणदत्त श्रीमाली. जुलाई 1999, पेज नं : 18-20


जो मैं जानती प्रीत किये दुःख होय! नगर ढिंढोरा पीटती, प्रीत कियो नहीं कोय!!


मेरे गुरुदेव, मेरा सौभाग्य.... मेरी...
पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय. ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय. गुरु जीवन का सबसे बड़ा सौभाग्य. सबसे सौभाग्यशाली बाते: 1 सदगुरु का मिलना, उनके चरणों से लिपटना. 2 सदगुरु के उद्धेश्य उनके कार्य की पूर्ति में सहायक होना. 3 सदगुरु के कार्य, उनके प्रहार, उनके प्रेम का मिलना. 4 सदगुरु का सर पर हाथ फेरना और विकारों को खत्म करना. 5 नाम नहीं, उनका काम चाहना..... नाम तो सभी चाहते हैं, मगर उनका कार्य करना. और नाम होकर भी उसमें निर्लिप्त न रहना... सबसे सौभाग्यदायक बात हैं.... आयोजक बनना, दीक्षा लेना, शिविर लगाना, पढाई करना, यह कोई श्रेष्ठता नहीं हैं. वरन श्रेष्ठता तो यह हैं की शिष्य अपने गुरु का परिचय हैं या नहीं. और हैं तो किस तरह का.... शिष्य के कार्यों को देखकर कोई क्या कहता हैं? उसके गुरु को जानना चाहता हैं. या उसके गुरु की आलोचना करता हैं.... आइये हम बने अपने गुरु के परिचय बने. शिष्य बने. आयोजक नहीं, कार्यकर्त्ता नहीं. शिष्य/शिष्या जो देवताओं से भी बड़े होते हैं. और देवता भी जिनके समक्ष छोटे होते हैं.

डॉ. नारायण दत्त श्रीमाली

डॉ. नारायण दत्त श्रीमाली
त्वदीयं वस्तु गोविन्दं


परमहंस स्वामी सच्चिदानंद जी से दीक्षा के कई वर्षों बाद जब निखिलेश्वरानंद की सेवा, एक निष्ठता एवं पूर्ण शिष्यत्व से स्वामीजी प्रभावित हुए, तो एक दिन पूछा –

“निखिल! मैं तुम्हारी सेवा से अत्यंत प्रसन्न हूँ, तुम जो कुछ भी चाहो, मांग सकते हो, असंभव मांग भी पूरी कर सकूँगा, मांगों?”


निखिलेश्वरानंद एक क्षण तक गुरु चरणों को निहारते रहे, बोले –


“त्वदीयं वस्तु गोविन्दं तुभ्यमेवम समर्पयेत”

जब ‘मेरा’ कहने लायक मेरे पास कुछ हैं ही नहीं, तो मैं क्या मांगूं, किसके लिए मांगू, मेरा मन, प्राण रोम प्रतिरोम तो आपका हैं, आपका ही तो आपको समर्पित हैं, मेरा अस्तित्व ही कहाँ हैं?

उत्तर सुनकर कठोर चट्टान सद्दश गुरु की आँखें डबडबा आई और शिष्य को अपने हांथों से उठाकर सीने से चिपका दिया, एकाकार कर दिया, पूर्णत्व दे दिया.
कुण्डलिनी - दर्शन


उस दिन रविवार था, हम सब शिष्य गुरुदेव (डॉ. नारायण दत्त श्रीमालीजी) के सामने गंगोत्री के तट पर बैठे हुए थे, सामने चट्टान पर अधलेटे से स्वामी जी (गुरुदेव डॉ. नारायण दत्त श्रीमालीजी) प्रश्नों का उत्तर दे रहे थे.


बात चल पड़ी कुण्डलिनी पर. गुरुभाई कार्तिकेय ने पूछा –
"गुरुवर कुण्डलिनी से सम्बंधित चक्र, दल आदि का विवरण हैं, यही नहीं अपितु दल की पंखुडियां और रंग तक बताया गया हैं, क्या यह सब ठीक हैं?"


गुरुदेव मुस्कुराये, बोले - देखना चाहते हो, और वे सामने सीधे बैठ गए, श्वासोत्थान कर उन्होंने ज्योहीं प्राणों को सहस्त्रार में स्थित किया, की हम लोगों ने कमल मूलाधार से लगाकर आज्ञाचक्र तक के सभी चक्र, कमल और प्रस्फुटन साफ - साफ देखे, सभी कमल विकसित थे और योग ग्रंथों में जिस प्रकार से इन चक्रों और कमलों के रंग, बीज ब्रह्म आदि वर्णित हैं, उन्हीं रंगों में वे उत्थित चक्र देखकर आश्चर्यचकित रह गए... सब कुछ साफ - साफ शीशे की तरह दिखाई दे रहा था.

पूज्य गुरुदेव डॉ. नारायण दत्त श्रीमालीजी के इस कुण्डलिनी दिग्दर्शन पर हम सब आश्चर्य के साथ - साथ श्रद्धानत थे
मेरे गुरुदेव के शारीर से महकता हैं चन्दन


हिमालय के समस्त सन्यासियों की दबी – ढकी वह इच्छा बराबर रहती हैं की वे योगिराज निखिलेश्वरानंद जी (डॉ. नारायण दत्त श्रीमालीजी) के साथ कुछ क्षण रहे, बातचीत करें, आशीर्वाद प्राप्त करें, पर ऐसा सौभाग्य तो तब मिलता हैं, जब सात जन्म के पुन्य उदय हो.

मेरा सौभाग्य हैं की मैं उनका शिष्य हूँ और उनके द्वारा “लोकोत्तर साधना” में सफलता प्राप्त कर सका, उनके साथ मनोवेग से कई बार अन्य ग्रहों की यात्रा कर देखने – जानने का अवसर मिला.

“लोकोत्तर - साधना” के अद्वितीय योगी निखिलेश्वरानंद जी के पास क्षण भर बैठने से ही चन्दन की महक सी अनुभव होती हैं, उनके शरीर से चन्दन महकता रहता हैं, वे सही अर्थों में आज के युग के अद्वितीय तपोपुन्ज हैं.

मेरे गुरुदेव क्यों छिपाएं रखते हैं अपने आपको?


मुझे यह फक्र हैं की मेरे गुरु पूज्य श्रीमालीजी (डॉ. नायारण दत्त श्रीमालीजी) हैं, मुझे उनके चरणों में बैठने का मौका मिला हैं, और यथा संभव उन्हें निकट से देखने का प्रयास किया हैं.


उस दिन वे अपने अंडर ग्राउंड में स्थित साधना स्थल पर बैठे हुए थे, अचानक निचे चला गया और मैंने देखा उनका विरत व्यक्तित्व, साधनामय तेजस्वी शरीर और शरीर से झरता हुआ प्रकाश.... ललाट से निकलता हुआ ज्योति पुंज और साधना की तेजस्विता से ओतप्रोत उस समय का वह साधना कक्ष.... जब की उस साधनात्मक विद्युत् प्रवाह से पूरा कक्ष चार्ज था, ऊष्णता से दाहक रहा था और मात्र एक मिनट खडा रहने पर मेरा शरीर फूंक सा रहा था, कैसे बैठे रहते हैं, गुरुदेव घंटों इस कक्ष में?

बाहर जन सामान्य में गुरुदेव कितने सरल और सामान्य दिखाई देते हैं, कब पहिचानेंगे हम सब लोग उन्हें? उस अथाह समुद्र में से हम क्या ले पाएं हैं अब तक...... क्यों छिपाएं रखते हैं, वे अपने आपको?

-सेवानंद ज्ञानी १९८४ जन. - फर.
अंतर


कहाँ आपका सन्यासी प्रचंड उद्वर्ष रूप, कि ऊंचे से ऊंचा योगी भी कुछ क्षण पास बैठने के लिए तरसता हैं, हम इतने वर्षों से आपके सन्यासी शिष्य हैं आपके साथ रहे हैं, आपका क्रोध देखा हैं, प्रचंड उग्र रूप देखा हैं और यहाँ आपका गृहस्थ रूप देख रहे हैं, आश्चर्य होता हैं, आपकर इन दोनों रूपों को देखकर.
हम सन्यासी शिष्यों में इतने वर्षों तक साथ रहने के बावजूद भी इतनी हिम्मत नहीं कि आपके सामने रहने के बावजूद भी इतनी हिम्मत नहीं कि आपके सामने खड़े होकर, सामने देखकर कुछ बोल सकें... पर यहाँ तो गृहस्थ शिष्यों के साथ आप बैठते हैं हंसी-मजाक करते हैं, और वे आपके सामने बैठकर बतियाने लगते हैं, और आप हैं कि सुनते रहते हैं.... इतना समय हैं क्या आपके पास?


ये कैसे शिष्य हैं, कि सामने देखकर बतियाते रहे... यह सब क्या हैं? - पूंछ रहे थे सनाय्सी गुरुभाई रविन्द्र स्वामी, गुरूजी से.


"तुम नहीं समझते रविन्द्र. यह गृहस्थ संसार हैं, जंगल और हिमालय का प्रांतर नहीं..... ये गृहस्थ शिष्य हैं, इनकी दृष्टि स्थूल हैं ये धन, पुत्र, सुख मांगकर ही प्रसन्न ही जाते हैं, शिष्यत्व क्या हैं? इसे पहिचानने और समझने के लिए बहुत बड़े त्याग कि जरूरत हैं और जहाँ तक मेरा प्रश्न हैं मैं इन पर आवरण डाले रखता हूँ, जो इस आवरण को भेदकर मुझ तक पहुंचता हैं, अपने "स्व" ko मिटाकर लीन होता हैं, वही शिष्य बन सकता हैं वही बनता हैं."


-समाधान किया गुरुदेव ने.

Monday, September 20, 2010

गुरु की क्रिया

गुरु की क्रिया
तीन लोक नव खण्ड में गुरु ते बड़ा न कोय।
करता करे न कर सकें, गुरु करे सो होय।।



पुराने समय की बात हैं, एक व्यक्ति अत्यंत ही निर्धन था, बड़ी मुश्किल से अपना जीवनयापन कर पाता था। परिवार में वह, पत्नी और कन्या के अतिरिक्त एनी कोई नहीं था।

समय के साथ कन्या धीरे-धीरे युवा होती गई, जब उसके विवाह का समय आया, तो उसके सामने यह परेशानी आई कि : “पुत्री के विवाह हेतु धन कहाँ से लाया जायें।“

ऐसे समय में किसी परिचित से उसे ज्ञात हुआ, कि कुछ दुरी पर ही एक श्रेष्ठ, तपस्वी व्यक्तित्व का निवास हैं, और वह उसकी समस्या का समाधान कर सकता हैं, उसे उसके परिचितों ने भी यही सलाह दी कि वह उस दिव्य व्यक्तित्व से जाकर अपनी समस्या के समाधान हेतु उनसे निवेदन करें।

जब अत्यंत ही व्यथित हो गया, तो उसने उस व्यक्तित्व के पास जाने का निर्णय कर लिया।
वह अपने घर से उसके आश्रम की ओर प्रस्थान करता हैं और उस उच्चकोटि के व्यक्तित्व के आश्रम में पहुँच जाता हैं। वहाँ वह उन गुरुदेव के कुटिया में जाता हैं, तो देखता हैं कि वह एक कोने में बैठे हैं, व गुरुदेव उसे देखकर उसे आने का कारण पूछते हैं।
मनुष्य अपनी व्यथा उनसे कहता हैं।

पूरी बात सुनकर गुरुदेव मुस्कुराते हुए उसे कहते हैं : “वत्स! वो मेरी चरणपादुका हैं, उसे तुम अपने सिर पर रखकर ले जाओ।“

मनुष्य को समझ नहीं आया कि यह पादुका भला मुझे इतनी धन-सम्पदा कैसे प्रदान कर सकती हैं, जिससे मैं अपनी पुत्री का विवाह कर सकूँ, मगर उनके आदेश कि अवहेलना करना उनके बस में नहीं था।
उस मनुष्य ने उन गुरु महाराज जी को प्रणाम किया और उनकी चरण पादुका को अपने सिर पर रखकर अत्यंत ही व्यथित मन से अपने घर को प्रस्थान किया।
कुछ समय की यात्रा के पश्चात ही उसे सामने से एक जत्था आता दिखाई दिया। उसमें एक राजा कहीं से युद्ध जीतकर बहुत सा धन-सम्पदा लेकर लौट रहा था, जब उसने उस मनुष्य को यूँ चरण पादुका लेकर जाते देखा तो सिपाहियों को आदेश देकर बुलाया।
राजा : “तुम कौन हो और तुम्हारे सिर पर यह किसकी चरण पादुका हैं।“
मनुष्य राजा को देखकर ही डर गया था, उसने उसे सारी कहानी कह सुनाई।
सारी बात सुनाने के बाद राजा ने खुश होकर कहा : “तुम मेरे साथ लायी हुयी सारी धन-सम्पदा को लिए जाओ, और अपनी कन्या का विवाह किसी संपन्न घराने में करना और खुद का जीवन भी श्रेष्ठता से व्यतीत करना और यह चरण पादुका मुझे दे दो।“
मनुष्य वह चरण पादुका राजा को दे देता हैं और उसे अपने सिर पर रख लेता हैं। मनुष्य उससे कारण जानना चाहता हैं, तो वह बताता हैं कि ये चरणपादुका जिनकी हैं, वे मेरे गुरुदेव हैं! आज तक जो भी मैं प्राप्त कर सका, उसके पीछे परोक्ष-अपरोक्ष दोनों ही प्रकार से वही ही हैं। यह ज्ञान, चिंतन, ध्यान, धारणा, समाधि, मंत्र-तंत्र-यंत्र, आदि सब कुछ तो उन्हीं की दें हैं। मैं तो मिटटी का लौंदा हूँ, मुझे तो किसी प्रकार का कोई ज्ञान नहीं हैं।

सीख : “गुरु क्या करता हैं? कब करता हैं? क्यूँ करता हैं? इसका ज्ञान सिर्फ गुरु को ही होता हैं, शिष्य या आम व्यक्ति इस बात को नहीं समझ सकते हैं। काल का एक चक्र बीतने पर ही मनुष्य को गुरु के हर कदम का एहसास होता हैं। तब तक मनुष्य किसी भी प्रकार से किसी बात को समझने में उतना ही समर्थ होता हैं, जितना कि उसके अंदर ज्ञान और चेतना की आग होती हैं, और शिष्य का यह धर्म हैं कि वह इस आग को हमेशा जलाते और बढ़ाते रहे, क्यूंकि जिस दिन यह आग धधकना बंद हो जायेगी, उस दिन वह शिष्यता के सारे स्तरों से नीचे उतरना शुरू कर देता हैं।“

आपका ही.
राज निखिल.
Mob. : 097521-05080.
rajbankar1981@gmail.com
mtyvmagzine@gmail.com

________________________________________________________

give ordeal

Give Ordeal


। श्री गुरु चरण कमलेभ्यो नमः 

अग्निपरीक्षा

सूर्य अस्ताचल की ओर अग्रसर था, किन्तु वेदना से भरपूर... उसके मन में छटपटाहट थी – मेरे जाने के बाद कौन इस धरा के अंधकार को दूर करेगा?

मन की बेचैनी जब बहुत अधिक बढ़ गई, तो उसने यह बात अपने निकटस्थ लोगों के सामने रखी, सभी मौन रह गए, क्योंकि वे जानते थे, कि हमारे अंदर इतनी क्षमता नहीं हैं, कि इस गहन अंधकार को दूर कर सकें

थोड़ी देर प्रतीक्षा करते-करते सूर्य को हताशा होने लगी, उसने पुनः अपनी बात रखी – कल प्रातः जब मैं आऊंगा, तब तक कोई तो एक ऐसा व्यक्तित्व मेरे सामने आये, जो इस धरा के अंधकार को दूर कर सकें, क्या प्रातः से सायं तक किया गया मेरा अथक परिश्रम व्यर्थ हो जायेगा?

तभी एक नन्हा सा दीप खड़ा हुआ और बोला – आपको निराश और चिंतित होने की आवश्यकता नहीं हैं, मैं हूँ न! जब तक मेरे अंदर सामर्थ्य हैं तब तक, अपनी आखरी सांस तक इस अंधकार को दूर करूँगा ही।

-हाँ! यह अवश्य हैं कि मेरे अंदर आपके जितनी प्रचंडता, दुर्धर्षिता एवं तेजोमयता नहीं हैं, किन्तु आपको यह वचन देता हूँ, कि अंधकार का साम्राज्य इस धरा पर पूरी तरह से होने नहीं दूँगा।


-मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान
अक्टूबर 1998 : पृष्ठ 29.
________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________


-मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान

Tuesday, September 14, 2010

Our Desires

संसार में प्रत्येक व्यक्ति सदैव यही कामना करता रहता है कि उसे मन फल मिले| उसे उसकी इच्छित वस्तु की प्राप्ति हो| जो वह सोचता है कल्पना करता है, वह उसे मिल जाये| भगवान् से जब यह प्रार्थना करते है तो यही कहते हैं, कि हमें यह दे वह दे| प्रार्थना और भजनों में ऐसे भाव छुपे होते हैं, जिनमें इश्वर से बहुत कुछ मांगा ही जाता है| यह तो ठीक है कि कोई या आप इश्वर से कुछ मंगाते है; प्रार्थना करते हैं| लेकिन इसके साथ ही यदि आप उस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न नहीं करते और अपनी असफलताओं; गरीबी या परेशानियों के विषय में सोच-सोचकर इश्वर की मूर्ती के सामने रोते-गिडगिडाते हैं उससे कुछ होने वाला नहीं है| क्योंकि आपके मन में गरीबी के विचार भरे हैं, असफलता भरी है, आपके ह्रदय में परेशानियों के भाव भरे हैं और उस असफलता को आप किसी दैवी चमत्कार से दूर भगाना चाहते हैं| जो कभी संभव नहीं है|

आपके पास जो कुछ है, वह क्यों है? वह इसलिए तो हैं कि मन में उनके प्रति आकर्षण है| आप उन सब चीजों को चाहते हैं| जो आपके पास हैं| मन में जिन चीजों के प्रति आकर्षण होता है, उन्हें मनुष्य पा लेता है| किन्तु शर्त यह भी है कि वह मनुष्य उसी विषय पर सोचता है, उसके लिये प्रयास करता हो और आत्मविश्वास भी हो| जो वह पाना चाहता है उसके प्रति आकर्षण के साथ-साथ वह उसके बारे में गंभीरता से सोचता भी हो|

दृढ आत्मविश्वास और परिश्रम की शक्ति से आप भी सफलता को अपनी ओर खींच सकते हैं| ईश्वरीय प्रेरणाओं से आप शक्ति ले सकते हैं और अपनी अभिलाषाओं को पुरी कर सकते हैं|

आप अपने जीवन स्वप्न को पूरा करते की दिशा में प्रयास करें| उसे ईश्वरीय प्रेरणा मानकर आगे बढे|

-सदगुरुदेव

युग परिवर्तन

युग परिवर्तन

संसार निरन्तर परिवर्तनशील है और समय के साथ-साथ व्यक्ति की मान्यताएं, भावनाएं और इच्छाएं बदलती रही हैं; कुछ समय पूर्व सामाजिक व्यवस्था ऐसी थी, जब व्यक्ति की आवश्यकताएं न्यून थीं और वे परस्पर मिल कर अपनी आवश्यकाओं की पूर्ति कर लेते थे, किसान अपना अनाज मोची को देता था और बदले में जूते बनवा लेता था, मोची चमड़े का काम करके दर्जी को देता था, और बदले में अपने कपडे सिलवा लेता था, इस प्रकार वे परस्पर एक-दुसरे के सहयोग से अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर लेते थे|

परन्तु धीरे-धीरे युग में परिवर्तन आया और व्यक्ति के मन में एक-दुसरे के प्रति सन्देह का भाव बढ़ा; उसने सोचा, कि मैं अनाज दे रहा हूं, वह ज्यादा कीमती है, इसकी अपेक्षा यह जो मोची मुझे काम करके देता है, उसका मूल्य कम है, ऐसी स्थिति आने पर मुद्रा का विनिमय प्रारम्भ हुआ, तब जीवन में एक-दुसरे के कार्य की पूर्ति में मुद्रा मुख्य आधार बन गया|

लेकिन समय परिवर्तन के साथ ही साथ सामाजिक जीवन ज्यादा से ज्यादा जटिल होता गया, एक-दुसरे से आगे बढ़ने की होड़ लग गई और जल्दी से जल्दी अपने लक्ष्य तक पहुंचने की भावना तीव्र हो गई, प्रत्येक व्यक्ति इस प्रयत्न में लग गया, कि जल्दी से जल्दी उस गंतव्य स्थल पर पहुंच जाय, जो कि उसका लक्ष्य है; फलस्वरूप उसमें प्रतिस्पर्धा, द्वेष और एक-दुसरे को पछाड़ने की प्रवृत्ति बढ़ गई, व्यापारी जल्दी से जल्दी लखपति बनने की फिराक में मशगूल हो गए, अधिकारियों ने अपने विभाग में सबसे ऊँचे पद पर पहुंचने के लिए जी-तोड़ प्रयास करना प्रारम्भ कर दिया और इस प्रकार एक ऐसी होड़ लग गई, जिसके रहते किसी प्रकार की शान्ति नहीं, प्रत्येक व्यक्ति के मन में एक छटपटाहट, एक बेचैनी, एक असंतोष की भावना बढ़ने लगी .. परन्तु इससे एक लाभ यह भी हुआ, कि व्यक्ति ज्यादा से ज्यादा सक्रीय हो गया और इस प्रकार इस प्रतिस्पर्धा के फलस्वरूप उन्नति के द्वार सभी के लिए सामान रूप से खुल गए|

परन्तु जब एक लक्ष्य हो और प्रतिस्पर्धी ज्यादा हों, तो एक विशेष प्रकार की होड़ व्यक्ति के मन में जम जाती है, वह अपने भौतिक प्रयत्नों के साथ-साथ भारत की प्राचीन विद्याओं की तरफ भी उन्मुख होने लगा और उनके माध्यम से अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए भी प्रयत्नशील बना, उसने इस सम्बन्ध में प्रयत्न भी किये और जब उसने अनुभव किया, कि अन्य भौतिक प्रयत्नों की अपेक्षा इनसे जल्दी और निश्चित सफलता मिलती है, तब वह इसकी खोज में ज्यादा प्रयत्नशील बना, वह ऐसे मन्त्रों व् साधना विधियों की खोज में बढ़ा, जिससे उसकी इच्छा पूर्ति सहजता से और शीघ्र हो सके|

मंत्र-तंत्र, साधना-उपासना, पूजा-पाठ आदि हमारी प्राचीन संस्कृति का मजबूत आधार है| एक ऐसा समय भी था, जब हम इनकी बदौलत संसार में अग्रगण्य थे और हमने समस्त भौतिक सुविधाओं को सुलभ कर लिया था, जिस समय पूरा संसार अज्ञान और अशिक्षा के अन्धकार में डूबा था, उस समय भी हमने प्रकृति को अपने नियंत्रण में सफलतापूर्वक ले लिया था, लंकाधिपति रावण ने पवन, अग्नि और अन्य प्राकृतिक तत्वों को मन्त्रों की सहायाता से इतना आधिक नियंत्रण में कर लिया था, कि वे उसकी इच्छा के अनुसार कार्य करते थे, हमारे पूर्वज त्रिकालदर्शी थे और अपने स्थान पर बैठे-बैठे हजारों-लाखों मील दूर घटित घटनाओं को अपनी आँखों से देखने में समर्थ थे - ये सारे तथ्य इस बात को स्पष्ट करते हैं, कि हमारी परम्परा अत्यंत समृद्ध रही है और हमने इन मंत्र, तंत्र, यंत्रों के माध्यम से अदभुत सफलताएं प्राप्त की हैं|

कालांतर में हम पर विदेशी आक्रमण होते गए और उन लोगों ने हमारे उच्चकोटि के ग्रन्थ जला कर राख कर दिए, इस प्रकार से हम एक समृद्ध परम्परा से वंचित हो गए, हममे वह क्षमता नहीं रही, जो कि हमारे पूर्वजों में थी|

फिर समय बदला और लोगों ने यह महसूस किया, कि बिना इन मंत्र-तंत्रों की सहायता से हम अपने जीवन में पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकते; इस संघर्ष में यदि हमें टिके रहना है, तो यह जरूरी है, कि इस उच्चकोटि की विद्या को पुनः प्राप्त कर योग्य गुरु से भली प्रकार समझा जाय, उन सारे नियमों-उपनियमों का पालन कर इन साधनाओं में सफलता प्राप्त की जाय, जिससे कि हमारा जीवन सुखमय, उन्नतिदायक और परिपूर्ण हो|

परन्तु दुर्भाग्य की बात यह है, ऐसी स्थिति में श्रेष्ठ मंत्र मर्मज्ञ प्रकाश में नहीं आये; जिनको ज्ञान है, वे स्वान्तः सुखाय पद्धति में विश्वास करते हैं और हिमालय के उन स्थानों पर तपस्यारत हैं, जहां आम आदमी का जाना संभव नहीं है| जो गृहस्थ जीवन में उच्चकोटि के अध्येता हैं, वे अपनी ही साधना में लीन हैं, उन्हें स्वार्थ का, छल-कपट का ज्ञान नहीं है, इसकी अपेक्षा नकली चमक-दमक वाले साधू-सन्तों और संन्यासियों की भीड़ एकत्र हो गई, जो आडम्बर से तो परिपूर्ण थे, लेकिन उनमे ठोस ज्ञान का सर्वथा अभाव था| सामान्य जन श्रेष्ठ और नकली साधू-सन्तों में भेद या अन्तर नहीं कर पाता, फ़लस्वरूप वे कई स्थानों पर धोके के शिकार हुए और इस प्रकार धीरे-धीरे जब उनका कार्य नहीं हुआ तो उनका विश्वास डगमगाने लगा, उन्हें आशंका होने लगी - ये मंत्र-तंत्र वास्तविक है भी या नहीं?

और इस प्रकार के विचारों ने उनकी आस्था की नींव हिला दी| परन्तु नकली चमक-दमक के बीच में ऐसे भी साधू, योगी या गृहस्थ गुरु विद्यमान रहे, जो निःस्वार्थ भाव से अपने रास्ते पर निरन्तर गतिशील बने रहे, चमक-दमक को देखने के बाद वे उस नकली जमात में नहीं मिले, जो स्वार्थ पर आधारित थी, क्योंकि उनके पास ठोस ज्ञान था, एक समृद्ध परम्परा थी, जिससे माध्यम से असंभव कार्य को भी संभव किया जा सकता था|

जब सामान्य जनता उन नकली लोगों से उब गई, तो उन्हें अपनी गलती महसूस और वे इस खोज में लगे, कि हमारे पूर्वजों की यह समृद्ध परम्परा गलत नहीं हो सकती, अवश्य ही इन नकली लोगों में ही त्रुटी है या इन्हें इस सम्बन्ध में पूरा ज्ञान नहीं है, जिससे कि मनोकामना सिद्धि हो सके|

आज का मानव-समाज इतना अधिक जटिल हो गया है, कि मानव की समस्याओं का कोई अंत नहीं है, आगे बढ़ने में पग-पग पर कठिनाइयां और समस्याओं का सामना करना ही पड़ता है, जिससे उसकी प्रगति अवरुद्ध हो जाती है|

आर्थिक समस्या, पुत्र न होने की समस्या, पुत्र प्राप्त होने पर भी कुपुत्र होने की समस्या, दुराचारी पत्नी की समस्या, पति-पत्नी में अनबन की समस्या, व्यर्थ में मुकदमे और बाधाओं की समस्या, रोजी की समस्या, व्यापार प्रारंभ न होने की समस्या, व्यापार वृद्धि की समस्या, विभिन्न रोगों से ग्रसित होने की समस्या, मानसिक चिंता दूर न होने की समस्या, पुत्री के लिये उपयुक्त वर न मिलने की समस्या, पुत्री का विवाह होने के बाद उसका वैवाहिक जीवन सुखी न होने की समस्या, नौकरी की समस्या, प्रमोशन की समस्या, घर में सुख शान्ति की समस्या, अधिकारीयों से मतभेद होने की समस्या, आकस्मिक मृत्यु की समस्या, भाग्योदय न होने की समस्या, जरूरत से ज्यादा कर्जा बढ़ जाने की समस्या, समय पर उच्च सम्मान प्राप्त न होने की समस्या, भूत-प्रेत-पिशाच बाधा, घर में सुख-शान्ति न रहने की समस्या|

-- और इस प्रकार की सैंकड़ों-हजारों समस्याएं हैं, जिनसे पग-पग पर व्यक्ति को जूझना पड़ता है, जिससे उनका अत्यधिक श्रम और शक्ति इन्हीं समस्याओं को हल करने में लग जाती हैं|

इन समस्याओं का समाधान सामाजिक कार्यों के माध्यम से संभव नहीं है और ना ही विज्ञान के पास इसका कोई हल है, इनके लिये कुछ आधार या कुछ ऐसी विद्याओं की जरूरत है, जो गूढ़ विद्याएं कही जाती हैं, इन विद्याओं के अन्तर्गत यंत्र-तंत्र, साधना-उपासना, पूजा-पाठ मंत्र जप आदि जरूरी है|

अभी तक ये कार्य विशेष पंडित वर्ग ही संपन्न करता रहा, परन्तु धीरे-धीरे इन पंडितों के स्तर में भी न्यूनता आ गई, उनकी आगे की पीढ़ी इतनी योग्य न हो सकी, जो दुसरे लोगों की समस्याओं को इन विद्याओं के माध्यम से दूर कर सकें; तब वे व्यक्ति अपने गुरु के समीप बैठ कर उन उपायों की खोज करने लगे, जिसके माध्यम से वे स्वयं इस प्रकार की साधनाएं संपन्न कर समस्याओं से मुक्ति पा सके| आपके भी जीवन में ऐसे गुरु का आगमन हो यही आपको आशीर्वाद|


- श्री नारायण दत्त श्रीमाली

Wednesday, September 8, 2010

Guru Mantra Mystery Part -1

ॐ परम तत्वाय नारायणाय गुरुभ्यो नमः

Guru Mantra Mystery Part -1

नए-नए साधक के मन में कुछ संशयात्मक प्रश्न, जो सहज ही घर कर बैठते हैं, वे हैं - मैं किस मंत्र को साधू? कौन सी साधना मेरे लिए अनुकूल रहेगी? किस देवता को मैं अपने ह्रदय में इष्ट का स्थान दूं?
ये प्रश्न सहज हैं, परन्तु इनके उत्तर इतने सहज प्रतीत नहीं होते, क्योंकि प्रथम तो इनके उत्तर कहीं भी स्पष्ट भाषा में नहीं मिलते, साथ ही यह बात भी निश्चित है, कि जब तक आप अत्यधिक व्यग्र हो कर जी-जान से चेष्टा नहीं करते, तब तक योग्य गुरु का सान्निध्य प्राप्त नहीं कर सकते| क्या इसका अर्थ यह निकाला जाय, कि अज्ञान के तिमिर में जीना ही हम सब का प्रारब्ध है? क्या इस दुविधाजनक स्थिति से निकलने का कोई उपाय नहीं?
यह शायद मेरा सुनहरा सौभाग्य ही था, कि हिमालय विचरण के दौरान मुझे विश्व प्रसिद्ध तंत्र शिरोमणि त्रिजटा अघोरी के दर्शन हुए| मैंने उनके बारे में कई आश्चर्यजनक तथ्य सुन रखे थे और इस बात से भी मैं परिचित था, कि वे गुरुदेव के प्रिय शिष्य हैं|
उस पहाड़ देहधारी मनुष्य के प्रथम दर्शन से ही मेरा शरीर रोमांचित हो उठा था.... मैं हर्षातिरेक एवं एक अवर्णनीय भय से थरथरा उठा, मेरे पाँव मानो जमीन पर कीलित हो गए, मेरा मुह आश्चर्य से खुल गया और एक क्षण मुझे ऐसा लगा मानो मेरी सांस रुक गई है .... इस स्थिति में मैं कितनी देर रहा, मुझे याद नहीं...हां! इतना अवश्य है, कि जब मैं प्रकृतिस्थ हुआ, तो वे मुस्कराहट बिखेरते हुए मेरे सामने थे, जबकि मैं एक चट्टान पर बैठा था ...
मैं दावे के साथ कह सकता हूं, कि कोई भी व्यक्ति, यहां तक कि तथाकथित 'सिंह के सामान निडर' पुरुष भी अकेले में उनके सामने प्रस्तुत होने में संकोच करेगा .... इतना अधिक तेजस्वी एवं भयावह स्वरुप है उनका| शायद मैं यह जानता था, कि वे मेरे गुरु भाई हैं, या शायद उनके चेहरे पर उस समय ममत्व के भाव थे, जो मैं उनके सामने बैठा रह सका... थोड़ी देर उनसे बात हुई, तो मेरा रहा-सहा संकोच भी जाता रहा...उन्हें गुरुदेव द्वारा 'टेलीपैथी' से मुझसे मिलने का आदेश मिला था (इस भ्रमण के दौरान यह मेरी आतंरिक इच्छा थी, कि मैं त्रिजटा से मिलूं और शायद गुरुदेव ने इसे जान लिया था) और उन्हें मेरा मार्गदर्शन करने को कहा था|
उस समय मेरा मन भी इस प्रकार के संशयात्मक प्रश्नों से ग्रस्त था और उन पर विजय प्राप्त करने के लिए मैं उनसे जूझता रहता था| पर मुझे जल्दी ही इस बात का अहेसास हो गया था, कि मैं एक हारती हुई बाजी खेल रहा हूं और मेरे मस्तिष्क-पटल पर कई नवीन प्रश्न दस्तक देने लगे - मेरे जीवन का लक्ष्य क्या है? मुझे क्या करना चाहिए? मेरे लिए सर्वश्रेष्ठ पथ कौन सा है? आदि-आदि|
जब मैंने अपनी दुविधा त्रिजटा के समक्ष राखी, तो वे ठहाका लगा कर हंसाने लगे, मानो मेरी अज्ञानता पर उन्हें दया आई हो...और फिर उन्होनें जो कुछ भी तथ्य मेरे आगे स्पष्ट किये, उनके आगे तो तीनों लोक की निधियां भी तुच्छ हैं|
उन्होनें कहां - 'प्रत्येक मनुष्य इस प्रकार की समस्या का सामना कभी न कभी करता ही है, परन्तु केवल प्रज्ञावान एवं सूक्ष्म विवेचन युक्त व्यक्ति ही इससे पार हो सकता है; बाकी व्यक्ति इसमें उलझ जाते हैं और जीवन का एक स्वर्णिम क्षण अवसर गँवा देते हैं, अत्यंत सामान्य रूप से जीवन व्यतीत कर देते हैं|
'हमारे शास्त्रों में तैंतीस करोड़ देव-देवताओं की उपस्थिति स्वीकार की गई और उन सबके एकत्व रूप को ही 'परम सत्य' या 'परब्रह्म' कहा गया है, कि यदि साधक को पूर्णता प्राप्त करनी है, तो उस इन ३३ करोड़ देवी-देवताओं को सिद्ध करना पडेगा; परन्तु यह तभी संभव है, जब व्यक्ति लगातार पृथ्वी पर अपने पूर्व जन्मों की स्मृति के साथ हजारों जन्म ले अथवा वह हमेशा के लिए अजर-अमर हो जाये....'

'परन्तु ये दोनों ही रस्ते बड़े पेचीदा और असंभव सी लगने वाली कठिनाइयों से युक्त हैं| इसके अलावा तुम्हें ज्ञान नहीं होता, कि कब तुम्हारी छोटी सी त्रुटी की वजह से तुम्हारी वर्षों की तपस्या नष्ट हो जायेगी और तुम उंचाई से वापस साधारण स्थिति में आ गिरोगे|

'मैं अत्यधिक लम्बे समय से हिमालय में तपस्यारत हूं और असंभव कही जाने वाली साधनाएं भी सिद्ध कर चुका हूं| इतने वर्षों के अनुभव के बाद यह मेरी धारणा है कि सभी मन्त्रों में 'गुरु मंत्र' सर्वश्रेष्ठ मंत्र है, सभी साधनाओं में 'गुरु साधना' अद्वितीय है और गुरु ही सभी देवताओं के सिरमौर हैं| वे इस समस्त ब्रह्माण्ड को गतिशील रखने वाली आदि शक्ति हैं और कुछ शब्दों में कहा जाय, तो वे - 'साकार ब्रह्म' हैं|




मेरे चहरे पर आश्चर्य की लकीरें उभर आईं, जिसे देखकर उन्होनें कहा- 'तुम्हें यों अवाक होनी की जरूरत नहीं, मुझे इस बात का पूरा ज्ञान है, कि मैं क्या कह रहा हूं| भ्रमित तो तुम लोग हुए हो, तुम हर चीज को बिना गूढता से निरिक्षण किये ही मान लेते हो, तभी तो आज विभिन्न देवी-देवताओं की साधनाएं तुम्हारे मन-मस्तिष्क को इतना लुभाती हैं| तुम्हारी स्थिति उस मछली की तरह है, जो की नदी को ही सक्षम और अनंत समझती है, क्योंकि सागर की विशालता से अनभिज्ञ होती हैं|




'भगवान् शिव के अनुसार सभी देवी-देवताओं, पवित्र नदियां एवं तीर्थ गुरु के दक्षिण चरण के अंगुष्ठ में स्थित हैं, वे ही अध्यात्म के आदि , मध्य एवं अंत है, वे ही निर्माण, पालन, संहार एवं दर्शन, योग, तंत्र-मंत्र आदि के स्त्रोत्र हैं| वे सभी प्रकार की उपमाओं से परे हैं... इसीलिए यदि कोई पूर्णता प्राप्त करने का इच्छुक है, यदि कोई इमानदारी से 'दिव्य बोध' प्राप्त करने की शरण ग्रहण कर लेनी चाहिए और उनकी साधना एवं मंत्र को जीवन में उतारने की चेष्टा करनी चाहिए|'




'गुरु मंत्र' शब्दों का समूह मात्र न होकर समस्त ब्रह्माण्ड के विभिन्न आयों से युक्त उसका मूल तत्व होता है| अतः गुरु साधना में प्रवृत्त होने से पहले यह उपयुक्त होगा, कि हम गुरु मंत्र का बाह्य और गुह्य दोनों ही अर्थ भली प्रकार से समझ लें|




'पूज्य गुरुदेव द्वारा प्रदत्त गुरु मंत्र का क्या अर्थ है?- मैंने बीच में टोकते हुए पूछा| एक लम्बी खामोशी...जो इतनी लम्बी हो गई थी, कि खिलने लगती थी... उनके चहरे के भावों से मुझे अनुभव हुआ, कि वे निश्चय और अनिश्चय के बीच झूल रहे हैं| अंततः उनका चेहरा कुछ कठोर हुआ, मानो कोई निर्णय ले लिया हो| अगले ही क्षण उन्होनें अपने नेत्र मूंद लिये, शायद वे टेलीपैथी के माध्यम से गुरुदेव से संपर्क कर रहे थे; लगभग दो मिनिट के उपरांत मुस्कुराते हुए उन्होनें आंखे खोल दीं|




'उस मंत्र के मूल तत्व की तुम्हारे लिये उपयोगिता ही क्या हैं? मंत्र तो तुम जानते ही हो, इसके मूल तत्व को छोड़ कर इसकी अपेक्षा मुझसे आकाश गमन सिद्धि, संजीवनी विद्या अथवा अटूट लक्ष्मी ले लो, अनंत संपदा ले लो, जिससे तुम सम्पूर्ण जीवन में भोग और विलाद प्राप्त करते रहोगे... ऐसी सिद्धि ले लो, जिससे किसी भी नर अथवा नारी को वश में कर सकोगे|




एक क्षण तो मुझे ऐसा लगा, कि उनके दिमाग का कोई पेंच ढीला है, पर मेरा अगला विचार इससे बेहतर था| मैंने सूना था, कि उच्चकोटि के योगी या तांत्रिक साधक को श्रेष्ठ, उच्चकोटि का ज्ञान देने से पूर्व उसकी परिक्षा लेने, हेतु कई प्रकार के प्रलोभन देते हैं, कई प्रकार के चकमे देते हैं... वे भी अपना कर्त्तव्य बड़ी खूबसूरती से निभा रहे थे ...




करीब पांच मिनुत तक उनकी मुझे बहकाने की चेष्टा पर भी मैं अपने निश्चय पर दृढ़ रहा, तो उन्होनें एक लम्बी श्वास ली और कहा - 'अच्छा ठीक है, बोलो क्या जनता चाहते हो?'




'सब कुछ' - मैं चहक उठा - 'सब कुछ अपने गुरु मंत्र एवं उसके मूल तत्व के बारे में मेरा नम्र निवेदन है' कि आप कुछ भी छिपाइयेगा नहीं|'


मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान जुलाई 2010



Posted in Labels: मंत्र शक्ति |

Saturday, September 4, 2010

मेरे गुरूजी को भला किसी परिचय की क्या आवश्यकता ?

मेरे गुरूजी ...
मेरे गुरूजी को भला किसी परिचय की क्या आवश्यकता ? वे कोई सूर्य थोड़े ही हैं जो रात्रिकाल में लुप्त हो जायें; वे चन्द्रमा भी नहीं जो मात्र रात्रि में ही दृष्टिगोचर हों | वे देव भी नहीं हैं क्योंकि वे कथाओं, शास्त्रों, मान्यताओं तक ही सीमित नहीं हैं और वे साधारण मनुष्य भी नहीं हैं क्योंकि वे सिद्ध हैं, ज्ञानी हैं, पूर्ण पुरुष हैं |
मेरे गुरूजी तो मात्र मेरे गुरूजी हैं | वे मेरी माता भी हैं, पिता भी और मार्गदर्शक भी | वे मेरे सर्वोत्तम मित्र हैं तथा मेरी सर्वाधिक मूल्यवान निजी संपत्ति भी | वे मेरे प्राण हैं अतैव मेरी अजरता, अमरता के स्रोत हैं | सारांश यह है की वे मेरे जीवन का सार हैं | जैसे मैं उनका परिचय हूँ वे मेरा परिचय हैं |
मेरे गुरूजी सहीं अर्थों में भारतीय ऋषि हैं, जिनके चरणों में बैठना ही एक सुखद अनुभव है, जीवन की पूर्णता है | वे तपस्वी हैं, सन्यासी हैं, गृहस्थ हैं, विद्वान हैं, श्रेष्ठतम शिष्य हैं, महानतम गुरु हैं, सर्वज्ञ हैं, सर्वस्व हैं फिर भी निरहंकार हैं, निर्विकार हैं |
मेरे गुरूजी तो केवल मेरे गुरूजी हैं ...
ॐ परम तत्वाय नारायणाय गुरुभ्यो नमः
-- गुरूजी के श्री चरणों में नतमस्तक एक शिष्य --

Monday, August 30, 2010

जिसे तुम अपना समझ रहे हो, वह शरीर तो तुम्हारा हैं ही नही!




जिसे तुम अपना समझ रहे हो, वह शरीर तो तुम्हारा हैं ही नहीं और जब तुम हो ही नहीं, तो फिर तुम्हारा जो ये शरीर हैं, जो हृदय हैं, तुम्हारी आँखों में छलछलाते जो अश्रुकण हैं, वो मैं ही नहीं हूँ तो और कौन हैं? तुम्हारे अन्दर ही तो बैठा हुआ हूँ मैं, इस बात को तुम समझ नहीं पाते हो, और कभी कभी समझ भी लेते हो, परन्तु दुसरे व्यक्ति अवश्य ही इस बात को समझते हैं, अनुभव करते हैं, कि कुछ न कुछ विशेष तुम्हारे अन्दर हैं जरुर, और वह विशेष मैं ही तो हूँ, जो तुममें हूँ! ...... और फिर अभी तो मेरे काफी कार्य शेष पड़े हैं, इसीलिए तो अपने खून से सींचा हैं तुम सींच कर अपनी तपस्या को तुममें डालकर तैयार किया हैं तुम सब को, उन कार्यों को तुम्हें ही पूर्णता देनी हैं! मेरे कार्यों को मेरे ही तो मानस पुत्र परिणाम दे सकते हैं, अन्य किस्में वह पात्रता हैं, अन्य किसी में वह सामर्थ्य हो भी नहीं सकती, क्योंकि वह योग्यता मैंने किसी अन्य को दी भी तो नहीं हैं?
परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानंदजी महाराज डॉ. नारायण दत्त श्रीमालीजी

मुझे ऐसे शिष्यों की आवश्यकता नहीं हैं, जिनमें कायरता हो, विरोध सहने की क्षमता न हो.





"मुझे ऐसे शिष्यों की आवश्यकता नहीं हैं, जिनमें कायरता हो, विरोध सहने की क्षमता न हो. जो जरा सी विपरीत स्थिति प्राप्त होते ही विचलित हो जाते हो. मुझे तो वे शिष्य प्रिय हैं, जिनमें बाधाओं को ठोकर मारने का हौसला होता हैं. जो विपरीत परिस्थितियों पर छलांग लगाकर भी मेरी आज्ञा का पूर्ण रूप से पालन करने की क्रिया करते हैं, जो समस्त बंधनों को झटक कर भी मेरी आवाज़ को सुनते हैं.... और ऐसे शिष्य स्वत: ही मेरी आत्मा का अंश बन जाते हैं, उनका नाम स्वत: ही मेरे होंठों से उच्चरित होने लगता हैं और वे मेरे हृदय की गहराइयों में उतर जाते हैं. वास्तव में जो दृढ निश्चयी होते हैं, वे समाज को ठोकर मार कर, सभी बंधनों को तोड़ते हुए एवं सभी बाधाओं को पार करते हुए गुरु चरणों का सानिध्य प्राप्त कर ही लेते हैं और सेवा व 

साधनाओं को अपने जीवन में स्थान देकर परम सत्य के मार्ग पर गतिशील हो जाते हैं. - परमहंस स्वामी

अनंत देवी देवता हैं, अनंत उपासना पद्धति है, कहाँ कहाँ जाकर सिर झुकाओगे, किन किन दरवाज़ों पर जाकर नाक रगडोगे, जीवन के दिन तो थोड़े से ही हैं, गिनती के हैं. वे तो ऐसे ही समाप्त हो जायेंगे, फिर क्या मिलेगा? जीवन यूँ ही भटकते हुए मंदिरों में , तीर्थों में, साधू सन्यासियों के पास समाप्त हो जायेगा. यदि तुम्हें सदगुरु मिल गये हैं, तो सब कुछ छोड़कर उनके चरण क्यूँ नहीं पकड़ लेते.

निखिलेश्वरानंदजी महाराज डॉ. नारायण दत्त श्रीमालीजी

मुझे वे शिष्य अत्यंत प्रिय हैं, जो अपने स्तर के अनुसार सेवा कार्य में रत हैं




मुझे वे शिष्य अत्यंत प्रिय हैं, जो अपने स्तर के अनुसार सेवा कार्य में रत हैं और समाज के नवनिर्माण में अपना योगदान प्रस्तुत कर रहे हैं. जब मैं एक, पॉँच, दस, पचास, सौ, पॉँच सौ व्यक्तियों व् परिवारों में अध्यात्मिक चेतना की लहर फैलाकर, उन्हें पत्रिका सदस्य बनाकर आर्य संस्कृति से उनका पुनर्परिचय करने वाले शिष्यों के नामों को पड़ता हूँ, तो उन पर मुझे गर्व हो आता हैं, ऐसा लगता हैं, कि मेरा एक प्रयास कुछ सार्थक हुआ हैं और मानव कल्याण को समर्पित कुछ रत्नों का चुनाव हो पाया हैं. ऐसे गृहस्थ शिष्य मुझे सन्यासी शिष्यों से अधिक प्रिय हैं, क्योंकि सन्यासी शिष्यों द्वारा कि गयी सेवा से सिर्फ उनका ही कल्याण होता हैं, जबकि इन गृहस्थ शिष्यों द्वारा कि जाने वाली सेवा से पुरे समाज का भी कल्याण होता हैं. ऐसे शिष्यों के नाम स्वत: ही मेरे ह्रदय पटल पर अंकित हो जाते हैं और मैं अपनी करुणा और आशीर्वाद की अमृत वर्षा से उन्हें सराबोर कर देने के लिए व्यग्र हो उठता हूँ.” -Sadgurudev

Friday, August 27, 2010

साधनाओं के नियम

साधनाओं के नियम

•साधनाओं को कोई भी गृहस्थ संपन्न कर सकता है, इसके लिये किसी भी विशेष वर्ग या जाति के आधार पर कोई बन्धन नहीं है, जिसको भी इस प्रकार की साधनाओं में आस्था हो, वह इन साधनाओं को संपन्न कर सकता है



•इस प्रकार की साधनाओं में पुरुष या स्त्री, युवा या वृद्ध, विवाहित या अविवाहित जैसा कोई भेद नहीं है, कोई भी साधना संपन्न कर सकता है
महिलाओं के लिये रजस्वला-समय किसी भी प्रकार की साधना के लिए वर्जित है, जिस दिन रजस्वला हो उस दिन से अगले पांच दिनों तक वह किसी भी प्रकार की साधना या पूजा अनुष्ठान संपन्न न करे, परन्तु यदि उसने अनुष्ठान प्रारम्भ कर दिया हो और बीच में रजस्वला हो गयी हो, तो उस अनुष्ठान या साधना को पांच दिनों के लिये छोड़ दे और छटे दिन स्नान कर, सर को धो कर, पवित्र होकर पुनः साधना या अनुष्ठान प्रारम्भ कर सकती है, ऐसा होने पर साधना में व्यवधान नहीं माना जाता
पीछे जहां तक साधना की है या जीतनी संख्या में जप कर ली है, उसके आगे की गणना की जा सकती है


•प्रत्येक साधना की जप संख्या, दिनों की संख्या निश्चित होती है; तब तक साधना चलती रहे, उस अवधि में साधक को चाहिए कि एक समय भोजन करें और सात्त्विक आहार ग्रहण करें, मांस, शराब, प्याज, लहसुन आदि वर्जित है; भोजन का सीधा सम्बन्ध है, अतः शुद्ध खान-पान के मामले में सतर्कता बरतें, होटल में खाना यथासंभव टालें, क्योंकि वहां पर शुद्धता का पूरा ध्यान नहीं रह पाता, जो कि इस कार्य के लिये आवश्यक होता है


• साधना करते समय किसी भी प्रकार की वस्तु खाना या सेवन करना अनुकूल नहीं हैं, व्यक्ति मंत्र जप प्रारम्भ करने से पूर्व दूध, चाय या भोजन ले सकता है
जब मंत्र जप चालू हो तब चाय, जल, भी पीना वर्जित है, यदि ऐसी स्थिति उत्पन्न भी हो जाये, तो इसके बाद पवित्रीकरण करने के उपरांत ही पुनः मंत्र जप प्रारम्भ करना चाहिए


• साधनाकाल में यथासंभव भूमि पर सोना उचित रहता है, भूमि पर किसी भी प्रकार का बिछौना सो सकते हैं, विशेष परिस्थितियों में पलंग आदि का उपयोग कर सकते हैं, परन्तु जहां तक संभव हो भूमि शयन ही करें


• साधनाकाल में स्त्री संसर्ग सर्वथा वर्जित है, इस अवधि में पूरी तरह से ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करें, इस अवधि में फ़िल्मी पत्रिकाएं पढ़ना, सिनेमा देखना, अन्य स्त्रियों से लम्बिई बातचीत करना आदि निषेध है, यथासंभव मन को संयत और शांत बनाए रखें


• साधना प्रारम्भ करने से पूर्व स्नान कर लेता उचित रहता है, यदि बीमार हो या अशक्त हो, तो ऐसी परिस्थिति में कपड़ा भिगोकर पुरे शरीर को पौंछ लेता चाहिए, परन्तु जहां तक हो सके स्नान करना ही उत्तम माना जाता है


•पैंट, निकर या पायजामा पहन कर साधना नहीं की जा सकती, इसके लिये धोती पहनना उचित माना गया है


• एक धोती कमर के नीची पहिन लें और गुरु पीताम्बर ओढ़ लें, परन्तु यदि सर्दी का मौसम हो, तो उनी कम्बल भी ओढ़ सकता है, धोती हमेशा धूलि हुई स्वच्छ हो


• साधना काल में क्षौर कर्म नहीं करवाना चाहिए, अर्थात सर के या दाढ़ी के बाल नहीं कटावें


• साधना काल में बीडी-सिगरेट, तम्बाकू, पान आदि का सेवन वर्जित है, जितने दिन तक साधना चले उतने दिन तक किसी प्रकार का व्यसन न करें


• साधना काल में स्नान करते समय साबुन का प्रयोग किया जा सकता है, परन्तु इत्र आदि का प्रयोग न करें, साधना के बाद कहीं बहार जाते समय जूतों का प्रयोग किया जा सकता है


•यदि साधक नौकरी या व्यापार कर रहा हो और रात्रिकालीन साधना हो, तो दिन में नौकरी कर सकतें, यदि साधना पूरी होने तक व्यापार अथवा नौकरी से अवकाश ले लें, तो ज्यादा उचित रहता है


• साधना काल में सिनेमा देखना या किसी राग-रंग, गायन, संगीत महफिल आदि में भाग लेता वर्जित है


• साधना काल में कम से कम बोलें, बहुत अधिक आवश्यक होने पर ही बातचीत करें और उतनी ही बातचीत करें, जीतनी जरूरी है, व्यर्थ में गप्पे लगाना बहस करना सर्वथा वर्जित हैं


• साधना घर के एकांत कक्ष में, किसी मन्दिर, नदी तट आदि स्थान पर जाकर की जा सकती है, पर इस बात का ध्यान रखें कि साधना स्थल ऐसा हो, जो शांत और कोलाहल से दूर हो; वह स्थान ऐसा होना चाहिए, जहां किसी प्रकार का व्यवधान उपस्थित न होता हो


• साधना प्रारंभ करने से पूर्व साधना संबंदी सारे उपकरण चित्र, यंत्र, माला आदि एक स्थान पर एकत्र कर लेनी चाहिए, पूजन सामग्री की व्यवस्था भी पहले से ही कर लेनी चाहिए, साथ ही साथ अपने गुरु या साधना बताने वाले व्यक्ति से साधना से सम्बंधित सरे तथ्य पहले से ही भली प्रकार समझ लेने चाहिए


• कभी-कभी साधना काल में आखोने के सामने कई अजीबोगरीब दृश्य दिखाई पड़ते हैं, कई बार विचित्र आवाजें सुनाई पड़ती है, कई बार ऐसा भी अनुभव होता है, कि जैसे आपको कोई आवाज दे रहा हो, परन्तु इन बातों की तरफ ध्यान नहीं देना चाहिए और बराबर अपनी साधना में लगे रहना चाहिए


• साधना काल में अपने सामने जल का लोटा भर रख देना चाहिए, उबासी, जम्भाई या अपां वायु के निकलने पर जल को कानों से स्पर्श कर लेने से यह दोष मिट जाता है; यदि बीच में लघुशंका तेवर हो जाय, तो उठ कर लघुशंका कर लेता चाहिए, पर इसके बाद पुनः स्नान कर दूसरी धोती पहिन कर ही साधना में बैठना चाहिए


• साधनाकाल में माला हाथ से गिरानी नहीं चाहिए, इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखें, यदि गिर जाय, तो पुनः प्रारम्भ से मंत्र जप करना चाहिए, ज्यादा अच्छा यह होगा कि गौमुखी (माला रखने का वस्त्र) में माला रख कर मंत्र जप करें, जिससे कि माला गिरने की समस्या नहीं रहे, गौमुखी किसी भी प्रकार के कपडे की हो सकती हैं


• किसी भी प्रकार की साधना या मंत्र जप प्रारम्भ करने से पूर्व दीक्षित होना जरूरी है, क्योंकि दीक्षा प्राप्त साधक ही अपने जीवन में सफलता प्राप्त कर सकता हैं; इसके बाद साधना प्रारम्भ करें, तो सबसे पहले एक माला गुरु मंत्र की जप कर, गुरु की पूजा कर उनके सामने निवेदन कर मंत्र जप प्रारम्भ करें, ऐसा क्रम नित्य रखना चाहिए, जिससे कि अप्रत्यक्ष रूप से गुरु सहायक बने रहे


•मंत्र जप के बीच में कैसी भी परिस्थिति आ जाय, उठाना नहीं चाइए, किसी से बातचीत होठों या संकेतों से नहीं करना चाहिए, यदि ऐसी परिस्थिति आ भी जाय तो उठ कर आचमन तथा पवित्रिकर्ण कर पुनः साधना में बैठे


•साधना के प्रति साधक को पूरा विश्वास और श्रद्धा होनी चाहिए, बिना आस्था, विश्वास के कोई भी साधना सफल नहीं हो सकती


•साधक सर्वथा शांत बने रहे, किसी भी प्रकार का सन्देह मन में नहीं आवें और न उग्रता अथावा क्रोध ही प्रदर्शित करें, साधना की अवधि में अशुद्ध भाषण न करें, असत्य न बोलें और कोई ऐसा कार्य न करें जो निति के विरुद्ध हो, पूरी निष्ठा और गुरु आशीर्वाद लेकर साधना में प्रवृत्त होने से निश्चय ही सफलता प्राप्त होती है


--- ये किसी भी प्रकार की साधना के आधारभूत तथ्य है, जो साधक को अपनाने चाहिए, ऐसा करने पर उसे सफलता स्वाभाविक रूप में मिल जाती है



- सदगुरुदेव श्री अरविन्द श्रीमालीजी

Wednesday, August 25, 2010

ध्यान रहे, केवल वही महत्वपूर्ण है

"ध्यान रहे, केवल वही महत्वपूर्ण है जो कि तुम शरीर को छोड़ते समय अपने साथ ले जा सकते हो। इसका मतलब है, ध्यान को छोड़कर कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है। जागरूकता के अलावा कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है, क्योंकि केवल जागरूकता को मौत नहीं ले जा सकती। बाकी सब कुछ छीन लिया जाएगा, क्योंकि सब कुछ बाहर से आता है। केवल जागरूकता भीतर से उमगती है। इसे छीना नहीं जा सकता। और जागरूकता की छाया - करुणा, प्रेम - वे भी छीने नहीं जा सकते। वे जागरूकता के आंतरिक हिस्से हैं। तुम अपने साथ सिर्फ जागरूकता ले जाओगे।

मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान

एक याचक कभी साधक नहीं बन सकता इसलिए किसी से कुछ न मांगें |
 मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान काय है

वशिष्ठ ने कात्यायनी से कहा : "यदि तुम्हें जीवन में आनंद प्राप्त करना हैं, सब्भी रोगों से मुक्त होना हैं, चिरयौवनमय बने रहना हैं और सिद्धाश्रम के मार्ग में पूर्णता प्राप्त करनी हैं तो तुम्हें मंत्र-तंत्र और यंत्र का समन्वय करना होगा!" और कात्यायनी ने वशिष्ठ को पति नहीं गुरु रूप में स्वीकार कर ऐसा किया और अपने जीवन को उच्चता पर पहुँचाया!

इसलिए जीवन में मंत्र-तंत्र-यंत्र का परस्पर सम्बन्ध हैं, इनके द्वारा ही जीवन ऊपर की और उठ सकता हैं! मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान का प्रकाशन ही इसलिए किया हैं.... कोई आवश्यकता नहीं थी, मगर आवश्यकता इस बात की थी कि इस समय सारा संसार भौतिक बंधनों में बंधा हुआ हैं, और बन्धनों में बंधने के कारन व्यक्ति अन्दर से छटपटाता रहता हैं, वह चाहता हैं मैं मुक्त हवा में साँस ले सकूँ, मैं कुछ आगे बढ़ सकूँ, मैं जीवन में बहुत कुछ कर सकूँ..... मगर इसके लिए कोई रास्ता नहीं हैं, उसको कोई समझाने वाला नहीं हैं!

ऐसी स्थिति में पत्रिका का प्रकाशन किया गया और इस पत्रिका में मंत्र-तंत्र और यंत्र तीनों का समन्वय किया गया हैं! इसमें उच्चकोटि के मंत्रों का चिंतन दिया गया हैं! यह पत्रिका केवल कागज के कोरे पन्ने नहीं हैं! यदि बाजार से कागजों का एक बण्डल लाया जायें, तो वह सौ रूपये में प्राप्त हो सकता हैं, मगर जब उन कागजों पर उच्चकोटि के मंत्र और साधना विधियां लिख दी जाती हैं, तो वह पुस्तक अमूल्य हो जाती हैं! ज्ञान को मूल्य के तराजू में नहीं तौला जा सकता, ज्ञान को इस बात से भी नहीं देखा जाता हैं कि इस पत्रिका का मूल्य पांच रूपये या पच्चीस रूपये हैं, ज्ञान का मूल्य तो अनन्त होता हैं!

इसलिए हमने इस श्रेष्ठतम पत्रिका का प्रकाशन किया! इसके माध्यम से हम अपने पूर्वजों के ज्ञान को, पूर्वजों के साहित्य को, जो लुप्त होता जा रहा हैं, जो समाप्त होता जा रहा हैं, उसे सुरक्षित कर सकें, क्योंकि कुछ समय और बीत गया, तो हम इन मंत्रों के, तंत्रों के बारे में कुछ जान ही नहीं सकेंगे! उन सबको सुरक्षित रखने के लिए इस पत्रिका का प्रकाशन किया...... इसके पीछे कोई व्यापर की आकांक्षा और इच्छा नहीं हैं, इसके पीछे जीवन का कोई ऐसा चिंतन नहीं हैं कि इसके माध्यम से धनोपार्जन किया जायें, चिंतन तो इस बात के लिए हैं कि हम पूर्वजों की थाती को, पूर्वजों के ज्ञान को सुरक्षित रख सकें!

और पिछले कई वर्षों से इस पत्रिका का प्रकाशन इस बात का प्रमाण हैं कि आज भी समाज में चेतना हैं, जो इस प्रकार का ज्ञान चाहती हैं! अगर नहीं चाहती, तो पत्रिका कभी भी बंद हो चुकी होती! ऐसे व्यक्ति हैं जो इस प्रकार की साधनाओं के लिए लालायित हैं,  उनको इस प्रकार की साधनाएं देने के लिए, वे समयानुसार किस प्रकार की साधनाएं करें , उनको मार्गदर्शन देने के लिए ही इस पत्रिका का प्रकाशन किया गया हैं!

और सही कहूँ तो यह पत्रिका नहीं कलयुग की श्रीमदभगवदगीता हैं, जिसका एक-एक पन्ना आने वाले समय के लिए, आने वाली पीढ़ी के लिए धरोहर हैं, उच्चता तक ले जाने की सीढ़ी हैं!

-पूज्यपाद सदगुरुदेव डॉ. नारायण दत्त श्रीमालीजी.
मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान.
जनवरी 2000, पेज 31.

धरती पर ही होता हैं स्वर्ग और नर्क

धरती पर ही होता हैं स्वर्ग और नर्क

            एक बार एक शिष्य को समझ नहीं आ रहा था कि स्वर्ग-नर्क मृत्यु के बाद ही प्राप्त होते हैं या जीते जी भी मिलते हैं.
            पूछने पर गुरुदेव उसे समझाने की बजे साथ लेकर एक शिकारी के यहाँ गयें! शिकारी कुछ पक्षियों को पकड़कर लाया और उन्हें काटने लगा. शिष्य शिकारी के इस कृत्य को देखकर ही घबरा गया. उसने गुरुदेव से कहा : गुरूजी! यहाँ
से चलिए, यह तो नर्क हैं.


              गुरुदेव ने कहा : इस शिकारी ने कितने जीवो को मारा होगा इसे ज्ञात नहीं. लेकिन फिर भी इसके पास कुछ नहीं हैं. अतः इसके लिए तो यहाँ भी नर्क हैं और मृत्यु के बाद भी.


           फिर गुरुदेव शिष्य को एक वेश्या के यहाँ ले जाने लगे. यह देख शिष्य चिल्लाया, गुरूजी! आप मुझे कहाँ लेकर जा रहे हैं.

              गुरुदेव ने कहा : यहाँ के वैभव को देख. मनुष्य किस तरह अपना शरीर, शील और चरित्र बेचकर सुखी हो रहा हैं, पर शरीर का सौन्दर्य नाश्ता होते ही यहाँ कोई नहीं आता. इनके लिए संसार स्वर्ग की तरह हैं, पर अंत वही शिकारी के समान हैं.
              इसके पश्चात् गुरु और शिष्य एक गृहस्थ व्यक्ति के यहाँ गए. गृहस्थ परिश्रमी, संयमशील, नेक और ईमानदार था. इस कारण उसके पास कोई दुःख नहीं था. गुरुदेव ने कहा : यही वह व्यक्ति हैं जिसके लिए जीवित रहते हुए इस पृथ्वी पर स्वर्ग हैं और मृत्यु के उपरान्त भी स्वर्ग प्राप्त होगा.
             शिष्य को अच्छी तरह समझ आ गया और इस संसार में रहते हुए ही हमें कर्मों को भुगतना पड़ता हैं. कर्मों के फलस्वरूप ही स्वर्ग और नर्क की प्राप्ति होती हैं. किन्तु स्वर्ग-नर्क प्राप्ति मृत्यु के बाद ही नहीं, मनुष्य के जीवित रहते हुए भी हो जाती हैं.

-मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान 
नवम्बर 2009 - पेज : 4.